केरल हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह घोषित किया है कि यदि कोई पत्नी संपत्ति में अपने वित्तीय योगदान (financial contribution) को साबित कर देती है, तो वह पति के नाम पर खरीदी गई संपत्ति में भी आधे हिस्से की हकदार है। जस्टिस सतीश निनन और जस्टिस पी. कृष्णा कुमार की खंडपीठ (Division Bench) ने माना कि ऐसा लेनदेन “ट्रस्ट की प्रकृति का” (partakes the character of a trust) होता है।
हाईकोर्ट ने पति की इस दलील (contention) को भी खारिज कर दिया कि साक्ष्य अधिनियम (Evidence Act) की धारा 92 के तहत सेल डीड के बयानों का खंडन नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह नियम केवल विलेख के पक्षकारों (parties to the instrument) के बीच ही लागू होता है।
मामले की पृष्ठभूमि
हाईकोर्ट ने एक पत्नी (याचिकाकर्ता) द्वारा दायर अपील (मैट. अपील संख्या 450/2018) को स्वीकार कर लिया, जो कोल्लम फैमिली कोर्ट के 2018 के एक आदेश के खिलाफ दायर की गई थी। फैमिली कोर्ट ने पत्नी की उस याचिका (OP 178/2009) को खारिज कर दिया था, जिसमें उसने 8 सेंट जमीन और उस पर बने दो मंजिला मकान पर मालिकाना हक (declaration of right) और निषेधाज्ञा (injunction) की मांग की थी।
याचिकाकर्ता (पत्नी) का विवाह 1974 में प्रतिवादी (पति) से हुआ था। पति, जिसने अपना करियर बस कंडक्टर के रूप में शुरू किया था, बाद में पुलिस उपाधीक्षक (DySP) के पद से सेवानिवृत्त (retired) हुआ।
पत्नी ने दावा किया कि संपत्ति कोल्लम विकास प्राधिकरण से खरीदी गई थी। उसने दलील दी कि कुल 2,00,000 रुपये की बिक्री मूल्य (sale consideration) में से 1.53 लाख रुपये का इंतजाम उसने अपने पिता और भाइयों से किया था, जबकि पति ने केवल 50,000 रुपये का योगदान दिया।
उसने आरोप लगाया कि चूंकि वह एक “पर्दानशीन महिला” थी और पंजीकरण (registration) के लिए उपस्थित नहीं हो सकती थी, इसलिए संपत्ति “केवल नाम के लिए” (for namesake) पति के नाम पर खरीदी गई। पत्नी ने यह भी दलील दी कि बाद में उसके सोने के गहनों (gold ornaments) की बिक्री से मिले पैसे और उसके पिता द्वारा दी गई लकड़ी से दो मंजिला घर बनाया गया।
इसके विपरीत, पति ने दावा किया कि संपत्ति और भवन “पूरी तरह से उसकी अपनी कमाई” (entirely from his own earnings), होम लोन, केएसएफई चिट और पीएफ लोन से बनाए गए थे। उसने स्वीकार किया कि पत्नी के गहने बेचे गए थे, लेकिन दावा किया कि उसने उन पैसों से नए गहने खरीदे थे, जो बाद में कोसोवो में उसके कार्यकाल के दौरान चोरी हो गए।
फैमिली कोर्ट ने यह कहते हुए मुकदमा खारिज कर दिया था कि यह संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 (Transfer of Property Act) की धारा 45 के तहत “पोषणीय नहीं” (not maintainable) था।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
हाईकोर्ट ने 13 नवंबर, 2025 के अपने फैसले में सबूतों का विस्तृत विश्लेषण (detailed analysis) किया, विशेष रूप से एक अलग सतर्कता जांच (vigilance enquiry) के दौरान पति द्वारा किए गए महत्वपूर्ण इकरार (admissions) पर ध्यान केंद्रित किया।
सतर्कता जांच में पति का इकरार
कोर्ट ने पाया कि प्रतिवादी (जो एक सेवानिवृत्त DySP था) के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति (disproportionate assets) के लिए एक प्रारंभिक जांच (Ext.X1) हुई थी। उस जांच में, पति ने निम्नलिखित बातें स्वीकार की थीं:
- संपत्ति 2,00,250 रुपये में खरीदी गई थी।
- उसे खरीद के लिए पत्नी के भाइयों से 53,000 रुपये और 50,000 रुपये (एनआरआई ड्राफ्ट के माध्यम से) प्राप्त हुए थे।
- भवन निर्माण पर 4.25 लाख रुपये खर्च हुए।
- सबसे महत्वपूर्ण बात, उसने स्वीकार किया कि निर्माण खर्चों को पूरा करने के लिए उसने पत्नी के गहने 1,60,192.50 रुपये में बेचे थे और इसकी रसीदें भी पेश की थीं।
इकरार (Admissions) एक ठोस सबूत हैं
मुकदमे (RW1 के रूप में) के दौरान, पति ने यह तो माना कि उसने सतर्कता जांच में ये बयान दिए थे, लेकिन यह समझाने की कोशिश की कि “उसने ये बयान केवल जांच की कार्यवाही से खुद को बचाने के लिए दिए थे और वे सच नहीं थे।”
हाईकोर्ट ने इस स्पष्टीकरण (explanation) को सिरे से खारिज कर दिया। बेंच ने कहा, “हम ऐसी दलील को स्वीकार नहीं कर सकते,” और यह स्पष्टीकरण “एक न्यायिक जांच में पूरी तरह से अस्वीकार्य” (wholly inadmissible) है। कोर्ट ने आगे कहा कि इसे स्वीकार करना “एक लोक सेवक के रूप में आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के पति के अपने दावे का समर्थन करने” जैसा होगा।
साक्ष्य अधिनियम की धाराओं और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए, कोर्ट ने माना कि इकरार (Admissions) “ठोस सबूत” (substantive pieces of evidence) होते हैं और वे “सबूत का भार” (burden of proof) उस व्यक्ति पर स्थानांतरित (shift) कर देते हैं, जिसने उन्हें किया है।
गवाह की विश्वसनीयता और देरी की दलील
कोर्ट ने पति के पक्ष में गवाही देने वाले जौहरी (RW5) की गवाही को भी “विश्वसनीयता की कमी” (lacking in credibility) वाला पाया। कोर्ट ने 14 साल की “देरी” (delay) की पति की दलील को भी खारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने कहा, “जब तक वैवाहिक संबंध (marital relationship) बने रहे, याचिकाकर्ता के पास इस व्यवस्था को चुनौती देने का कोई अवसर या कारण नहीं था।” कोर्ट ने पाया कि मुकदमेबाजी 2009 में पति द्वारा तलाक की सूचना दिए जाने के बाद शुरू हुई।
हिस्से की गणना और साक्ष्य अधिनियम की धारा 92
सतर्कता जांच में पति के इकरार के आधार पर, कोर्ट ने संपत्ति का कुल मूल्य 6,25,250 रुपये (₹2,00,250 जमीन + ₹4,25,000 भवन) और पत्नी का योगदान 3,13,000 रुपये (₹1,53,000 जमीन + ₹1,60,000 सोना) आंका, जो “कुल मूल्य के आधे के बराबर” (equivalent to one-half) है।
पति ने तर्क दिया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 92 उसे सेल डीड (जो केवल उसके नाम पर थी) के बयानों (recitals) का खंडन करने से रोकती है। हाईकोर्ट ने इस दलील को दो आधारों पर खारिज कर दिया:
- मौखिक साक्ष्य को बाहर रखने का नियम केवल विलेख के पक्षकारों (parties to the instrument) के बीच लागू होता है।
- “इसके अलावा, वर्तमान मामले में, संपत्ति पति और पत्नी वाले परिवार के लाभ (benefit of the family) के लिए खरीदी गई थी, और इसलिए, यह लेनदेन एक ट्रस्ट का चरित्र (partakes the character of a trust) रखता है। नतीजतन, डीड में लिखे बयानों के बावजूद, पत्नी अपनी संपत्ति पर अधिकार की घोषणा की मांग करने की हकदार है।”
अदालत का फैसला
इन निष्कर्षों के आधार पर, हाईकोर्ट ने अपील को स्वीकार किया और फैमिली कोर्ट के 2018 के आदेश को रद्द कर दिया।
कोर्ट ने घोषणा की: “याचिकाकर्ता (पत्नी) का अनुसूचित संपत्ति और उस पर बने भवन में आधा हिस्सा है, भले ही सेल डीड संख्या 3499/1993 में कुछ भी कहा गया हो।”
यह देखते हुए कि याचिकाकर्ता उसी भवन में रह रही है, कोर्ट ने एक परिणामी निषेधाज्ञा (consequential injunction) भी दी, जो प्रतिवादी (पति) और उसके एजेंटों को पत्नी के कब्जे में जबरन हस्तक्षेप करने या उसके आधे हिस्से के अधिकारों को हस्तांतरित (alienating) करने से रोकती है।




