केरल हाईकोर्ट ने शुक्रवार को मलयालम फिल्म हाल के निर्माताओं को निर्देश दिया कि वे सेंसर बोर्ड (CBFC) द्वारा सुझाए गए दो संशोधन करने के बाद फिल्म को दोबारा प्रमाणन के लिए प्रस्तुत करें। न्यायमूर्ति वी. जी. अरुण ने कहा कि फिल्म दोबारा जमा किए जाने पर सीबीएफसी को दो सप्ताह के भीतर नया प्रमाणपत्र जारी करना होगा।
निर्माताओं ने याचिका दायर कर आरोप लगाया था कि सेंसर बोर्ड प्रमाणन देने में अनुचित देरी कर रहा था।
मामले की सुनवाई के दौरान कैथोलिक कांग्रेस और एक आरएसएस नेता ने भी हस्तक्षेप करते हुए आरोप लगाया कि फिल्म में संवेदनशील और आपत्तिजनक सामग्री है। इसके बाद कोर्ट ने पिछले महीने कोच्चि में एक विशेष स्क्रीनिंग में सभी पक्षों के साथ फिल्म देखी।
अपने आदेश में अदालत ने सेंसर बोर्ड द्वारा सुझाए गए दो संशोधनों को मंज़ूरी दी, जिनका संबंध था:
- अदालत की कार्यवाही के चित्रण से
- सांस्कृतिक संगठनों के कथित अवमूल्यन तथा ध्वज प्रणाम, अभ्यंतर शत्रुकल, गणपति वट्टम और संघम कवलुंड जैसे संवादों से
इसके अलावा, अदालत ने बीफ बिरयानी से संबंधित दृश्य हटाने और जहां-जहां राखी दिखाई गई है उसे ब्लर करने के सुझाव को भी उचित माना।
सीबीएफसी की रिवाइज़िंग कमेटी ने पहले ही फिल्म को ‘ए’ प्रमाणपत्र दे दिया था। कमेटी ने माना था कि फिल्म की कथा सामाजिक-सांस्कृतिक संवेदनशीलताओं और धार्मिक मुद्दों से जुड़ी है, और यह केवल वयस्क दर्शकों के लिए ही उपयुक्त है।
सेंसर बोर्ड ने अदालत को बताया कि उसके विशेषज्ञों का मानना था कि फिल्म ने अंतर्धार्मिक संबंधों—विशेषकर “लव जिहाद”—का गलत चित्रण किया है, और हिंदू व ईसाई नेताओं द्वारा जताई गई आशंकाओं को अनुचित या असहिष्णु रूप में दर्शाया है।
निर्माताओं ने तर्क दिया कि फिल्म को बिना पूर्व सूचना रिवाइज़िंग कमेटी के पास भेजना मनमाना कदम था और कई कट अनुचित थे।
फिल्म देखने के बाद न्यायमूर्ति अरुण ने सीबीएफसी विशेषज्ञों की आपत्तियों को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि कहानी एक मुस्लिम लड़के और एक ईसाई लड़की के प्रेम-संबंध के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसका दोनों परिवार विरोध करते हैं। लड़की कुछ समय के लिए इस्लाम धर्म अपनाने का निर्णय लेती है, लेकिन बाद में अपना फैसला बदल देती है। अंततः दोनों परिवार और धार्मिक नेता इस संबंध को स्वीकार कर लेते हैं।
अदालत ने कहा, “एक सामान्य दर्शक के दृष्टिकोण से देखने पर यह फिल्म हमारे संविधान में निहित मूलभूत सिद्धांतों के अनुरूप पाई गई।”
कोर्ट ने कहा कि यह समझ से परे है कि इस तरह की कथा को अंतर्धार्मिक संबंधों का ‘गलत चित्रण’ या हिंदू-ईसाई नेताओं की आशंकाओं को ‘अनुचित और असहिष्णु’ बताने के तौर पर कैसे देखा जा सकता है। न्यायालय ने माना कि विशेषज्ञों की टिप्पणियाँ फिल्म के व्यापक संदेश के सामने टिक नहीं पातीं।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि भले ही सेंसर बोर्ड को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अनुच्छेद 19(2) के तहत लगने वाली युक्तिसंगत सीमाओं के बीच संतुलन बनाना हो, लेकिन यह संतुलन संविधान के मूल सिद्धांत—धर्मनिरपेक्षता और बंधुत्व—को दरकिनार करके नहीं किया जा सकता।




