सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को केरल सरकार को राज्यपाल के खिलाफ दायर उन याचिकाओं को वापस लेने की अनुमति दे दी, जिनमें राज्य विधानसभा से पारित विधेयकों को मंजूरी देने में देरी को लेकर आपत्ति जताई गई थी। अदालत ने माना कि हाल ही में तमिलनाडु के राज्यपाल से संबंधित मामले में दिए गए फैसले के बाद यह मुद्दा अब अप्रासंगिक (infructuous) हो चुका है।
जस्टिस पी. एस. नरसिंह और जस्टिस ए. एस. चंदुरकर की पीठ ने यह आदेश उस समय पारित किया जब वरिष्ठ अधिवक्ता के. के. वेणुगोपाल ने केरल सरकार की ओर से पेश होकर कहा कि तमिलनाडु मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय दिशानिर्देशों के बाद अब अलग से निर्देश की आवश्यकता नहीं रही।
हालांकि, अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने याचिका वापसी का विरोध किया और कोर्ट से आग्रह किया कि वह अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए संवैधानिक प्रश्न पर अपने निर्णय का इंतजार करे।

मामला क्या था?
2023 में केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख करते हुए आरोप लगाया था कि उस समय के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने राज्य विधानसभा से पारित सात विधेयकों पर दो वर्षों तक कोई निर्णय नहीं लिया और उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया, जबकि इनमें से किसी विधेयक का केंद्र-राज्य संबंधों से कोई लेना-देना नहीं था।
राज्य सरकार ने कहा था कि राज्यपाल की यह चुप्पी संविधान के अनुच्छेद 200 के उस प्रावधान के खिलाफ है, जो राज्यपाल को “जितनी जल्दी संभव हो” बिल पर निर्णय लेने का निर्देश देता है। याचिका में कहा गया कि इससे राज्य विधानसभा की भूमिका ही “अप्रभावी और निष्क्रिय” हो गई है।
इन विधेयकों में विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयक 2021, केरल सहकारी समितियाँ (संशोधन) विधेयक 2022 सहित सार्वजनिक हित से जुड़े कई महत्वपूर्ण विधेयक शामिल थे। गृह मंत्रालय ने केरल सरकार को बाद में सूचित किया कि राष्ट्रपति ने इनमें से चार विधेयकों को मंजूरी नहीं दी है।
तमिलनाडु मामला बना मिसाल
तमिलनाडु सरकार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को ऐतिहासिक फैसला देते हुए कहा था कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के पास भेजे गए बिलों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लिया जाना चाहिए। कोर्ट ने राज्यपाल द्वारा दूसरी बार बिलों को राष्ट्रपति के पास भेजने को “अवैध और विधि में त्रुटिपूर्ण” करार दिया था।
यही फैसला केरल सरकार के लिए मिसाल बना और सरकार ने अपनी याचिकाएं वापस ले लीं।
संवैधानिक अस्पष्टता बनी चुनौती
गौरतलब है कि संविधान में यह स्पष्ट नहीं है कि राष्ट्रपति किसी राज्य विधेयक पर कितने समय में निर्णय लें। साथ ही अनुच्छेद 361 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने अधिकारों के प्रयोग के लिए किसी अदालत में उत्तरदायी नहीं हैं, जिससे न्यायिक समीक्षा कठिन हो जाती है।