दिल्ली हाईकोर्ट की कार्यक्षमता बनाए रखने के उद्देश्य से सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने एक अहम फैसला लेते हुए जस्टिस यशवंत वर्मा को उनके मूल संस्थान इलाहाबाद हाईकोर्ट ट्रांसफर करने का निर्णय लिया। यह कदम उस जांच के चलते उठाया गया जिसमें उनके आधिकारिक आवास से भारी मात्रा में नकदी बरामद होने के आरोपों की जांच की जा रही है।
जस्टिस वर्मा, दिल्ली हाईकोर्ट में वरिष्ठ पद पर कार्यरत थे और कॉलेजियम के साथ-साथ कई महत्वपूर्ण प्रशासनिक समितियों के सदस्य भी थे। न्यायिक कार्यों से निलंबन के बावजूद उनकी दिल्ली में उपस्थिति से अदालत की प्रशासनिक कार्यप्रणाली ठप होने की आशंका थी, जिससे हाईकोर्ट के जरूरी फैसलों और प्रक्रियाओं पर असर पड़ सकता था।
कॉलेजियम से जुड़े सूत्रों के मुताबिक, “जस्टिस वर्मा का इन अहम समितियों में शामिल रहना खुद एक बाधा बन सकता था, क्योंकि जब तक उनके मामले का समाधान नहीं होता, समितियों का कामकाज ठप पड़ने का खतरा बना रहता।” इसी कारण उन्हें स्थानांतरित करना एक आवश्यक कदम बन गया।

20 मार्च को हुई कॉलेजियम की बैठक में सर्वसम्मति से जस्टिस वर्मा को इलाहाबाद हाईकोर्ट भेजने का निर्णय लिया गया। इस फैसले के तहत जस्टिस वर्मा ने भी ट्रांसफर के लिए अपनी सहमति दे दी, जिससे दिल्ली हाईकोर्ट में न्यायिक और प्रशासनिक कार्य बिना किसी बाधा के जारी रह सकें।
हालांकि अब वे इलाहाबाद हाईकोर्ट में वरिष्ठता के आधार पर न तो कॉलेजियम का हिस्सा होंगे और न ही प्रशासनिक समितियों में शामिल रहेंगे। इससे उनके प्रभाव में कमी आएगी और उनके खिलाफ जारी जांच को बिना संस्थागत अड़चन के आगे बढ़ाया जा सकेगा।
जस्टिस वर्मा से जुड़ा यह विवाद देशभर की विधिक बिरादरी में चर्चा का विषय बन गया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने इस तबादले का विरोध करते हुए इसे हाईकोर्ट के सम्मान और कार्यप्रणाली के लिए नुकसानदायक बताया। वहीं संसद में भी न्यायिक जवाबदेही को लेकर बहस तेज हो गई है।
जस्टिस वर्मा के खिलाफ आरोपों और सुप्रीम कोर्ट के इस कदम ने न्यायिक संस्थानों की पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर एक बार फिर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।