पूर्व मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई ने बुधवार को कहा कि न्यायाधीशों को फैसले सुनाते समय और अदालत में टिप्पणी करते वक्त विशेष संयम रखना चाहिए, क्योंकि कभी-कभी हल्के-फुल्के अंदाज़ में कही गई बातें भी संदर्भ से काटकर पेश कर दी जाती हैं। लोकमत नेशनल कॉन्क्लेव 2025 में आयोजित एक पैनल चर्चा के दौरान उन्होंने यह बात कही।
गवई ने अपने अनुभव का ज़िक्र करते हुए बताया कि उनके कार्यकाल के दौरान अदालत में कही गई एक टिप्पणी, जिसे उन्होंने सहज भाव में कहा था, बाद में गलत संदर्भ में पेश की गई और उसका अर्थ ही बदल दिया गया। इसी से यह ज़रूरी हो जाता है कि न्यायाधीश सार्वजनिक मंच पर शब्दों के चयन को लेकर सतर्क रहें।
पूर्व CJI ने स्पष्ट किया कि न्यायाधीशों को यह सोचकर फैसला नहीं देना चाहिए कि उनके निर्णय का समर्थन होगा या विरोध। उनका कहना था कि न्यायिक निर्णय केवल तथ्यों, कानून और संविधान के आधार पर होने चाहिए। किसी फैसले से कोई खुश है या नाराज़, इससे न्यायाधीश को प्रभावित नहीं होना चाहिए।
उन्होंने सोशल मीडिया को भी इस संदर्भ में एक बड़ी चुनौती बताया। गवई ने कहा कि आज के दौर में न्यायाधीशों के कुछ शब्द सोशल मीडिया पर इस तरह फैल जाते हैं कि उनका मूल संदर्भ ही खो जाता है। ऐसे में सबसे बेहतर तरीका यही है कि न्यायाधीश कम बोलें और अपने फैसलों के ज़रिये अपनी बात रखें।
संविधान के नीति निदेशक तत्वों पर बात करते हुए गवई ने कहा कि पिछले साल ऐतिहासिक केशवानंद भारती मामले के 75 वर्ष पूरे हुए। उन्होंने याद दिलाया कि इस फैसले में संविधान संशोधन की सीमा को लेकर भले ही न्यायालय के भीतर मतभेद थे, लेकिन नीति निदेशक तत्वों के महत्व को लेकर लगभग सभी न्यायाधीश एकमत थे। बाद के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्व, दोनों मिलकर संविधान की आत्मा और चेतना हैं।
राज्य के विभिन्न अंगों की सर्वोच्चता को लेकर पूछे गए सवाल पर पूर्व CJI ने कहा कि न तो संसद सर्वोच्च है और न ही न्यायपालिका। उनके अनुसार, भारत में सर्वोच्च केवल संविधान है और विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका—तीनों संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर काम करते हैं। उन्होंने माना कि इन संस्थाओं के बीच कभी-कभी टकराव या कार्यक्षेत्र का आंशिक ओवरलैप हो सकता है, लेकिन इससे यह कहना गलत होगा कि पिछले दस वर्षों में न्यायपालिका कमजोर हुई है।
अपने 22 वर्षों से अधिक के न्यायिक अनुभव का हवाला देते हुए गवई ने यह भी कहा कि न्यायिक स्वतंत्रता को इस आधार पर नहीं आंका जा सकता कि कोई न्यायाधीश सरकार के खिलाफ कितने फैसले देता है। उनके अनुसार, कई मामलों में फैसले सरकार के पक्ष में होते हैं और कई में नागरिकों के पक्ष में। यह पूरी तरह इस बात पर निर्भर करता है कि मामले के तथ्य क्या हैं और कानून उन पर कैसे लागू होता है।

