भारतीय आपराधिक कानून के तहत प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को रेखांकित करने वाले एक महत्वपूर्ण फैसले में, न्यायमूर्ति मंजीव शुक्ला के नेतृत्व में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2019 के केस नंबर 141 में अंतरिम भरण-पोषण आदेश पर रोक लगाने का आदेश दिया। यह मामला, आपराधिक पुनरीक्षण याचिका, जिसे CRIMINAL REVISION NO. 6106 of 2023 के रूप में पंजीकृत किया गया है, दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 125 और व्यभिचार के आरोपों से जुड़े मामलों में भरण-पोषण के संबंध में इसके प्रावधानों के आसपास के जटिल कानूनी मुद्दों को सामने लाता है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला याचिकाकर्ता और विपक्षी पक्ष संख्या 2 के बीच भरण-पोषण को लेकर विवाद से संबंधित है। फिरोजाबाद में पारिवारिक न्यायालय ने पहले Cr.P.C. की धारा 125 के अनुसार पत्नी (विपक्षी पक्ष संख्या 2) को ₹7,000 का अंतरिम भरण-पोषण दिया था। अधिवक्ता ऋषभ अग्रवाल द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए याचिकाकर्ता ने व्यभिचार के आरोपों का हवाला देते हुए इस आदेश को चुनौती दी, तर्क दिया कि धारा 125(4) सीआरपीसी के तहत, “व्यभिचार में रहने वाली” पत्नी भरण-पोषण के लिए अयोग्य है।
याचिकाकर्ता के तर्क ने इस बात पर जोर दिया कि धारा 125(4) सीआरपीसी के तहत अदालत का दायित्व यह है कि अंतरिम या अंतिम भरण-पोषण देने से पहले यह निर्णायक रूप से निर्धारित किया जाए कि क्या वास्तव में व्यभिचार शामिल है। इस संदर्भ में, याचिकाकर्ता ने आदेश को चुनौती दी, जिसमें कहा गया कि पारिवारिक न्यायालय ने भरण-पोषण देने से पहले व्यभिचार के आरोप को संबोधित करने की प्रक्रियात्मक आवश्यकता को दरकिनार कर दिया था।
शामिल कानूनी मुद्दे
1. धारा 125 सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण और व्यभिचार का अधिकार: सीआरपीसी की धारा 125 पत्नियों, बच्चों और माता-पिता को भरण-पोषण के लिए एक रूपरेखा प्रदान करती है जो खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं। धारा 125(4) विशेष रूप से एक पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार को प्रतिबंधित करती है यदि वह “व्यभिचार में रह रही है।” इससे यह कानूनी सवाल उठता है कि क्या व्यभिचार के आरोपों की प्रारंभिक जांच के बिना अंतरिम भरण-पोषण आदेश दिया जा सकता है।
2. न्यायालयों के लिए प्रक्रियात्मक अधिदेश: निर्णय ने धारा 125(4) के तहत प्रक्रियात्मक आवश्यकता की ओर ध्यान आकर्षित किया, जिसके अनुसार भरण-पोषण पर निर्णय देने से पहले न्यायालयों को व्यभिचार जैसे आरोपों का पता लगाना अनिवार्य है। न्यायमूर्ति शुक्ला ने कहा कि अंतरिम राहत देने से पहले इस मुद्दे पर “स्पष्ट निष्कर्ष” निकालना महत्वपूर्ण है।
3. अंतरिम भरण-पोषण आदेशों में न्यायिक निरीक्षण: याचिकाकर्ता के वकील ऋषभ अग्रवाल ने तर्क दिया कि व्यभिचार के आरोप को संबोधित करने में पारिवारिक न्यायालय की विफलता ने कानून द्वारा अपेक्षित प्रक्रियात्मक निष्पक्षता का उल्लंघन किया है। यह न्यायिक प्रक्रियाओं में उचित परिश्रम के महत्व पर जोर देता है जहां नैतिक और वैवाहिक दायित्वों के दावों का मूल्यांकन किया जाता है।
न्यायालय द्वारा मुख्य अवलोकन
प्रक्रियात्मक पालन के महत्व को पहचानते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश में महत्वपूर्ण अवलोकन किए। न्यायमूर्ति शुक्ला ने कहा:
“जब पत्नी के खिलाफ व्यभिचार का स्पष्ट आरोप लगाया जाता है, तो धारा 125 सीआरपीसी के तहत मामले से निपटने वाली संबंधित अदालत को व्यभिचार के मुद्दे पर फैसला करना होता है और यहां तक कि अंतरिम भरण-पोषण भी उस मुद्दे पर निष्कर्ष दर्ज करने के बाद ही दिया जा सकता है।”
अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि इस प्रक्रिया की अनदेखी करना धारा 125(4) के पीछे विधायी मंशा का उल्लंघन करता है, जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि ऐसी परिस्थितियों में भरण-पोषण न दिया जाए जहां पत्नी का अधिकार कानूनी रूप से वर्जित हो। इसलिए, पारिवारिक न्यायालय के 13 अप्रैल, 2023 के आदेश, जिसमें विपक्षी पक्ष संख्या 2 को ₹7,000 का अंतरिम भरण-पोषण दिया गया था, पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी।
निर्णय
इस फैसले के साथ, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विपक्षी पक्ष संख्या 2 को नोटिस जारी किया है, जिसमें उसे जवाबी हलफनामा दाखिल करने के लिए तीन सप्ताह की अवधि दी गई है। इसके बाद, याचिकाकर्ता के पास जवाब देने के लिए एक सप्ताह का समय होगा। इस मामले पर 25 नवंबर, 2024 को पुनर्विचार किया जाना है।
इस बीच, अदालत ने स्पष्ट किया कि अंतरिम भरण-पोषण आदेश पर यह रोक पारिवारिक न्यायालय को धारा 125 सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण के दावे पर अंतिम निर्णय लेने से नहीं रोकेगी।
मामले का विवरण:
– मामला संख्या: आपराधिक पुनरीक्षण संख्या 6106/2023
– पीठ: न्यायमूर्ति मंजीव शुक्ला
– अधिवक्ता:
– याचिकाकर्ता की ओर से: ऋषभ अग्रवाल
– विपक्षी पक्ष की ओर से: सत्य नारायण यादव, अधिवक्ता अरुण कुमार यादव