सुप्रीम कोर्ट ने मारपीट और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC/ST Act) के तहत दोषी ठहराए गए दो व्यक्तियों की सजा को रद्द कर दिया है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि किसी पक्षद्रोही गवाह (Hostile Witness) की गवाही को केवल इसलिए पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि वह अभियोजन पक्ष का समर्थन नहीं कर रहा है। यदि उसकी गवाही का कोई हिस्सा बचाव पक्ष का समर्थन करता है और विश्वसनीय है, तो उस पर भरोसा किया जा सकता है।
जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के 18 जनवरी, 2024 के फैसले को पलटते हुए अपीलकर्ताओं, दादू उर्फ अंकुश और अंकित, को बरी कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी सवाल यह था कि क्या गवाहों के बयानों और मेडिकल रिपोर्ट में विरोधाभास होने के बावजूद सजा बरकरार रखी जा सकती है, और क्या हाईकोर्ट का यह निष्कर्ष सही था कि अपराध केवल जाति के आधार पर किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपीलकर्ताओं को बरी करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष अपना मामला संदेह से परे साबित करने में विफल रहा और हाईकोर्ट के निष्कर्ष “विकृत” (perverse) थे।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 4 अक्टूबर, 2015 की एक घटना से जुड़ा है। पीड़िता (अभियोक्त्री) ने आरोप लगाया था कि जब उसके माता-पिता घर पर नहीं थे, तब आरोपी उसके घर आए। आरोप था कि अपीलकर्ता नंबर 2 (अंकित) ने उसका दुपट्टा खींचा और उसकी गर्दन पर खरोंच मारी। जब पीड़िता का भाई (PW-2) उसे बचाने आया, तो आरोपियों ने उसके साथ मारपीट की।
ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता नंबर 1 (दादू) को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 323 के तहत दोषी ठहराया था। वहीं, अपीलकर्ता नंबर 2 को IPC की धारा 354, 323 और SC/ST एक्ट की धारा 3(1)(xi) के तहत दोषी मानते हुए एक साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी। हाईकोर्ट ने उनकी अपील खारिज कर दी थी, जिसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
दलीलें और साक्ष्य
अभियोजन पक्ष मुख्य रूप से पीड़िता (PW-1) और उसके भाई (PW-2) की गवाही पर निर्भर था। PW-2 ने गवाही दी कि वह लड़ाई की खबर सुनकर घर भागा और आरोपियों को उसकी बहन को परेशान करते देखा। उसने दावा किया कि उसे लकड़ी से पीटा गया, जिससे उसकी नाक और मुंह से खून बहने लगा।
इसके विपरीत, बचाव पक्ष ने घटना का एक अलग संस्करण प्रस्तुत किया। पीड़िता के रिश्तेदार PW-4, जिसे पक्षद्रोही (hostile) घोषित कर दिया गया था, ने बताया कि गणेश पूजा पंडाल में भीड़भाड़ के कारण धक्का-मुक्की हुई थी, जहां कथित तौर पर आरोपियों का पैर PW-2 के पैर पर पड़ गया था, जिससे विवाद हुआ।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ
सुप्रीम कोर्ट ने साक्ष्यों का बारीकी से विश्लेषण किया और अभियोजन की कहानी में कई गंभीर विसंगतियां पाईं।
1. पक्षद्रोही गवाह (Hostile Witness) की साक्ष्य ग्राह्यता सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की आलोचना की कि उसने PW-4 की गवाही को केवल इसलिए नजरअंदाज कर दिया क्योंकि वह पक्षद्रोही हो गया था। कोर्ट ने पाया कि गणेश पूजा पंडाल में झगड़े की बात PW-2 को लगी चोटों का एक “संभावित और विश्वसनीय” स्पष्टीकरण देती है।
उत्तर प्रदेश राज्य बनाम रमेश प्रसाद मिश्रा (1996) के फैसले का हवाला देते हुए, पीठ ने कहा:
“…यह तय कानून है कि एक पक्षद्रोही गवाह के साक्ष्य को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जाएगा यदि वह अभियोजन या आरोपी के पक्ष में बोलता है। बल्कि इसकी बारीकी से जांच की जानी चाहिए और साक्ष्य का वह हिस्सा जो अभियोजन या बचाव पक्ष के मामले के अनुरूप है, उसे स्वीकार किया जा सकता है।”
2. प्रत्यक्षदर्शी और मेडिकल साक्ष्य में विरोधाभास कोर्ट ने गौर किया कि जहां PW-2 ने अपनी नाक और मुंह से खून बहने का दावा किया था, वहीं मेडिकल ऑफिसर (PW-5) को ऐसी कोई चोट नहीं मिली। दर्ज की गई चोटें साधारण खरोंचें थीं।
“यह भी ध्यान देने योग्य है कि पीड़िता और PW-2 दोनों के शरीर पर पाई गई चोटें साधारण प्रकृति की थीं, जो PW-5 के अनुसार किसी कठोर और भोथरी वस्तु से आई प्रतीत होती हैं,” पीठ ने कहा।
डॉक्टर ने जिरह में यह भी माना कि यदि कोई व्यक्ति गिर जाता है या जमीन पर घिसटता है, तो ऐसी चोटें आना संभव है।
3. स्वतंत्र गवाहों का अभाव सुप्रीम कोर्ट ने इसे “अजीब” माना कि PW-2 के इस दावे के बावजूद कि “मोहल्ले के कई लोग आए थे और घटना को देखा था,” किसी भी स्वतंत्र गवाह से पूछताछ नहीं की गई।
4. SC/ST एक्ट पर हाईकोर्ट का निष्कर्ष “विकृत” सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस निष्कर्ष पर कड़ी आपत्ति जताई कि अपराध केवल इसलिए किया गया क्योंकि शिकायतकर्ता अनुसूचित जाति से थी।
“आश्चर्यजनक रूप से, ट्रायल के दौरान कोर्ट में पीड़िता द्वारा ऐसा कोई बयान नहीं दिया गया है कि आरोपी ने कथित अपराध केवल इसलिए किया क्योंकि पीड़िता अनुसूचित जाति की सदस्य थी… इस प्रकार, हाईकोर्ट द्वारा दिया गया निष्कर्ष विकृत (perverse) है,” कोर्ट ने कहा।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अपीलकर्ताओं की सजा “असमर्थनीय” (indefensible) है।
“PW-5 के साक्ष्य और हमारे उपरोक्त निष्कर्षों को देखते हुए, हमें यह मानने का कोई कारण नहीं दिखता कि आरोपी को IPC की धारा 323 के तहत अपराध का दोषी ठहराया जाना चाहिए,” पीठ ने फैसला सुनाया।
तदनुसार, अपील स्वीकार कर ली गई, हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर दिया गया, और अपीलकर्ताओं को सभी आरोपों से बरी करते हुए उनके जमानत बांड से मुक्त कर दिया गया।

