इलाहाबाद हाईकोर्ट, लखनऊ में इलाहाबाद हाईकोर्ट का नाम बदलकर प्रयागराज उच्च न्यायालय या उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय करने की मांग करते हुए एक जनहित याचिका दायर की गया, जिसे हाईकोर्ट की खंडपीठ जिसमें माननीय श्री न्यायमूर्ति पी.के. जायसवाल और माननीय श्री न्यायमूर्ति डी.के. सिंह ने खारिज करते हुए कहा कि ये कुछ पब्लिसिटी पाने के लिए दायर की गया पब्लिसिटी स्टंट लिटिगेशन है।
अशोक पांडे बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया द्वारा सचिव कानून और न्याय मंत्रालय, नई दिल्ली के संक्षिप्त तथ्य इस प्रकार हैं
लखनऊ हाईकोर्ट में वकालत कर रहे एक वकील द्वारा हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जिसमें उनके द्वारा हाईकोर्ट से ये याचना की गयी थी की हाईकोर्ट भारत सरकार को ये निर्देश दे की वो इलाहाबाद हाईकोर्ट का नाम बदल कर प्रयागराज हाईकोर्ट या हाईकोर्ट ऑफ उत्तर प्रदेश रखे।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय याचिका पर विचार करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय का इतिहास उल्लिखित किया। हाईकोर्ट ने कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का इतिहास इंग्लैंड की रानी एलिजाबेथ द्वारा जारी किए गए 1600 के चार्टर से है। इस चार्टर में ईस्ट इंडिया कंपनी को ईस्ट इंडीज के साथ व्यापार करने के लिए शामिल किया गया था।
हाईकोर्ट ने कहा कि 1871 में, न्यायालयों के पांच ग्रेड का गठन किया गया था, अर्थात्
(1) तहसीलदार
(2) सहायक या अतिरिक्त सहायक आयुक्त
(3) उपायुक्त या सिविल जज लखनऊ
(4) आयुक्त और
(5) न्यायिक आयुक्त
किसी भी जिले में पहले और दूसरे ग्रेड के सभी न्यायालयों पर सामान्य नियंत्रण उपायुक्त में निहित था और पहले तीन ग्रेड की अदालतों पर नियंत्रण, किसी भी प्रभाग में, आयुक्त में निहित, न्यायिक आयुक्त के अधीक्षण के अधीन था।
1902 में, दो प्रांतों को एक नया नाम दिया गया था, अर्थात् आगरा और अवध का संयुक्त प्रांत, जो बाद में संयुक्त प्रांत (नाम का परिवर्तन) आदेश, के तहत 24.01.1950 से उत्तर प्रदेश हो गया। भारत सरकार अधिनियम, 1915 का भाग -9 में भारतीय उच्च न्यायालयों से संबंधित है। 1862, 1865, 1866 आदि में जारी किए गए पत्र पेटेंट उक्त भाग- 9 द्वारा निरस्त और प्रतिस्थापित किए गए थे। भारत सरकार अधिनियम, 1915-1919 की धारा 101 (5) के द्वारा, उत्तर-पश्चिमी प्रांतों के लिए उच्च न्यायालय का नाम बदलकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय कर दिया गया। बंगाल में फोर्ट विलियम उच्च न्यायालय को कलकत्ता उच्च न्यायालय के रूप में बनाया गया था।
अवध में न्यायिक आयुक्त का न्यायालय अवध न्यायालय के अधिनियम के पारित होने के साथ समाप्त हो गया। यू.पी. 1925 का अधिनियम नंबर 4, जिसने अवध के लिए मुख्य न्यायालय की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश और चार या अधिक न्यायाधीश शामिल थे, जिन्हें राज्यपाल द्वारा नियुक्त किया जाता था।
1915-1919 का भारत सरकार अधिनियम, भारत सरकार अधिनियम, 1935 द्वारा निरस्त कर दिया गया था। भारत सरकार अधिनियम, 1935 के भाग- 9 के अध्याय- 2 में उच्च न्यायालय के अधिकार प्रदान किए गए थे। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में पारित किया गया था। 1948 में, गवर्नर-जनरल, भारत सरकार अधिनियम, 1935 की धारा 229 के तहत शक्तियों के प्रयोग में, यू.पी. उच्च न्यायालय (समामेलन) आदेश, 1948, भारत सरकार के राजपत्र में प्रकाशित हुआ।
समामेलन आदेश का खंड- 3 के अनुसार नियत तारीख से यानी 26 जुलाई, 1948 से इलाहाबाद में उच्च न्यायालय और अवध में मुख्य न्यायालय को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के नाम से एक उच्च न्यायालय के रूप में गठित कर दिया गया। इन सभी अधिनियमों को अब भारत के संविधान के प्रावधानों द्वारा समेकित और निरस्त कर दिया गया है, जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने देखा कि उपरोक्त ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ, यह स्पष्ट है कि इलाहाबाद का उच्च न्यायालय रॉयल चार्टर द्वारा बनाया गया था। प्रारंभ में, इसे उत्तर-पश्चिमी प्रांतों के लिए उच्च न्यायालय कहा जाता था, जिसमें पूर्वाेक्त प्रांत का क्षेत्र था लेकिन अवध उत्तर-पश्चिमी प्रांतों द्वारा शासित न होकर एक अलग प्रांत था। उत्तर-पश्चिमी प्रांतों के लिए न्यायिक उच्च न्यायालय बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय बन गया।
न्यायालय ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 214-231 के प्रावधानों का उल्लेख किया। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी पाया कि अनुच्छेद 372 के आधार पर जब तक संसद समामेलन आदेश में संशोधन नहीं करती है, तब तक उच्च न्यायालय, जिसका नाम इलाहाबाद में उच्च न्यायालय है, को बदला नहीं जा सकता है।
कोर्ट ने याचिकाकर्ता से तर्कों के दौरान एक सवाल पूछा कि हाईकोर्ट का नाम कौन बदल सकता है, परन्तु याचिकाकर्ता इसका कोई जवाब नहीं दे पाया।
अंत में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि न्यायालय एक विशेष कानून बनाने के लिए संसद को निर्देश नहीं दे सकता हैं और इसलिए, न्यायालय ने पाया कि वर्तमान रिट याचिका कुछ और नहीं बल्कि एक पब्लिसिटी स्टंट लिटिगेशन है, जिसे कुछ प्रचार प्राप्त करने के लिए दायर किया गया है।
पीठ ने आगे उल्लेख किया कि यदि याचिकाकर्ता इतना चिंतित है, तो उसे संसद को उच्च न्यायालय का नाम बदलने के लिए राजी करना चाहिए। इस न्यायालय को किसी विशेष कानून को बनाने के लिए संसद या राज्य विधानमंडल को निर्देशित करने का अधिकार नहीं है और इसलिए, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने याचिका को खारिज कर दिया।
अंत में हाईकोर्ट ने याचिका को खारिज कर दिया, साथ ही साथ यह भी कहा कि कोर्ट इस याचिका में कोई जुर्मोना नहीं लगा रही है क्यांेकि याचिकाकर्ता स्वंय इलाहाबाद उच्च न्यायालय का एक अधिवक्ता है।
Case Details-
Case Title: Asok Pande (In-Person) vs U .O.I. Thru. Secy. Ministry Of Law & Justice, New Delhi &Ors
Case No.: PIL Civil No.14171 of 2020
Date of Order: 31.08.2020
Quorum: Hon’ble Mr. Justice P.K. Jaiswal and Hon’ble Mr. Justice D.K. Singh
Appearance: Asok Pande (In Person), ASG and CSC