इलाहाबाद उच्च न्यायालय के नवीनतम निर्णय में, माननीय न्यायमूर्ति डॉ कौशल जयेंद्र ठेकर ने चेक बाउंस मामले में जारी समन आदेश के संबंध में एक आदेश पारित किया।
यह मामला आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत उच्च न्यायालय के समक्ष दायर किया गया था।
रवि दीक्षित बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले के संक्षिप्त तथ्य और उत्तर इस प्रकार हैंर –
याचिकाकर्ता ने क्रमशः 01.03.2019 और 2.03.2019 को 5,00,000 / – और 5,98,000 / रूपये के दो चेक जारी किए थे। बैंक ने 28.05.2019 को दोनों चेक का पास करने से मना कर दिया।
प्रतिवादी द्वारा 12.06.2019 को कानूनी नोटिस भेजा गया था क्योंकि उन्हें कोई पैसा नहीं मिला था और बाद में उन्होंने आरोपी के खिलाफ धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज की।
निचली अदालत के न्यायधीशन ने मामले के तथ्यों को सुनने के बाद यह पाया कि साक्ष्य के आधार पर एक केस बनता है और 03.09.2019 को एक सम्मन आदेश जारी किया।
माननीय न्यायाधीश द्वारा जारी किए गए सम्मन आदेश से क्षुब्ध होकर याचिकाकर्ता इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष सीआरपीसी की धारा 482 के तहत याचिका दर्ज की।
उच्च न्यायालय के समक्ष तर्क
अभियुक्त के वकील ने तर्क दिया कि उनके मुवक्किल को तलब नहीं किया जा सकता क्योंकि उन्होंने पहले ही 12.06.2019 को जारी नोटिस का जवाब दाखिल कर दिया था, और उनके जवाब के 15 दिनों के बाद ही शिकायत दर्ज की जा सकती है।
वकील ने न्यायालय को यह भी कहा कि शिकायत में सेवा की तारीख का उल्लेख नहीं किया गया था और ऐसे मामलों में सामान्य खंड अधिनियम के अनुसार 30 दिन का समय नोटिस की सेवा के लिए निर्धारित किया गया है और उसके बाद भुगतान की प्रतीक्षा अवधि के लिए 15 दिन का समय दिया गया है, और, तब शिकायत दर्ज नहीं की जा सकती।
याचिकाकर्ता ने कहा कि उन्हें इस मामले में झूठा फंसाया गया, क्योंकि शिकायतकर्ता के साथ उनका वित्तीय विवाद था। याचिकाकर्ता ने इस तथ्य को स्वीकार किया कि चेक के भुगतान को उसके द्वारा रोका गया था, क्योंकि उसने बैंक को भुगतान रोकने का निर्देश दिया था।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के समक्ष मुद्दा
इलाहाबाद हाईकोर्ट के समक्ष मुख्य मुद्दा यह था कि अगर किसी पक्ष ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वे भुगतान नहीं करना चाहते हैं तो क्या ऐसे मामले में शिकायतकर्ता को शिकायत दर्ज करने के लिए 15 दिनों का इंतजार करना चाहिए।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का तर्क
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह देखा कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के अन्तर्गत यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता है कि यदि आरोपी भुगतान करने से इंकार करता है, तो भी शिकायतकर्ता शिकायत दर्ज नहीं कर सकता है।
इसके अलावा इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस तथ्य पर गौर किया कि आरोपी ने एक चेक दिया, लेकिन भुगतान रोक दिया। उनका इरादा स्पष्ट था कि वह भुगतान नहीं करना चाहते थे और बाद में एक साल तक ट्रायल कोर्ट में पेश नहीं हुए। उन्होंने अगस्त 2020 में जाकर उच्च न्यायालय का रुख किया।
न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि धारा 138 के प्रावधानों के अनुसार, जिस क्षण एक चेक बाउंस होता है, उसी क्षण् अपराध पूर्ण होता है, इसलिए शिकायतकर्ता के पास आरोपी के खिलाफ शिकायत दर्ज करने के सभी अधिकार थे।
अपने आदेश में, माननीय न्यायमूर्ति ने एन परमेस्वरम उन्नी बनाम जी कन्नन, (2017) 5 एससीसी 737 में सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट का भी उल्लेख किया गया।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पाया कि विद्वान मजिस्ट्रेट द्वारा दिया गया कारण बहुत स्पष्ट है। यह एक सुविचारित आदेश है जिसे 30.11.2019 को पारित किया गया था। एक वर्ष की अवधि के लिए, याचिकाकर्ता ने मजिस्ट्रेट के सामने उपस्थित नहीं होना चुना है और अब उच्च न्यायालय में याचिका दायर की गया है।
उपरोक्त के मद्देनजर याचिका खारिज कर दी गई है और याचिकाकर्ता पर 15000 रुपये का जुर्माना लगाया गया है।
Case Details
Title: Ravi Dixit vs State Of Uttar Pradesh & Anr
Case No. APPLICATION U/S 482 No. – 14068 of 2020
Date of Order- 23.09.2020
Quorum: Hon’ble Mr. Justice Dr. Kaushal Jayendra Thakher
Counsel for the petitioner: Mr Ajay Dubey