पारिवारिक न्यायालयों (गौतम बुद्ध नगर क्लस्टर) के न्यायिक अधिकारियों के लिए “लिंग संवेदीकरण” पर दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन 12 एवं 13 जुलाई, 2025 को पारिवारिक न्यायालय मामलों की संवेदनशीलता के लिए माननीय समिति, इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा न्यायिक प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान, उत्तर प्रदेश, लखनऊ में किया गया, जिसमें अमरोहा, बागपत, बिजनौर, बुलंदशहर, गौतम बुद्ध नगर, गाजियाबाद, हापुइ, मेरठ, मुरादाबाद, मुजफ्फरनगर, रामपुर, सहारनपुर, सम्भल एवं शामली जनपदों के पारिवारिक न्यायालयों के न्यायिक अधिकारियों ने भाग लिया। इस कार्यशाला का उद्देश्य न्यायिक अधिकारियों को लिंग की अवधारणा से परिचित कराना, लिंग संबंधित पूर्वाग्रहों के प्रति सजग एवं संवेदनशील बनाना, घर एवं कार्यस्थल पर लिंग की भूमिका को पहचानने में सक्षम बनाना है।

कार्यशाला का उद्घाटन 12 जुलाई, 2025 को माननीय श्रीमती न्यायमूर्ति संगीता चंद्रा, न्यायाधीश, इलाहाबाद उच्च न्यायालय, लखनऊ तथा समिति की अध्यक्ष, माननीय श्री न्यायमूर्ति सिधार्थ, न्यायाधीश, इलाहाबाद उच्च न्यायालय एवं बुलंदशहर के प्रशासनिक न्यायाधीश तथा माननीय श्री न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ल, न्यायाधीश, इलाहाबाद उच्च न्यायालय, लखनऊ एवं समिति के सदस्य द्वारा किया गया। उद्घाटन के पश्चात के सत्र में माननीय श्रीमती न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान, न्यायाधीश, इलाहाबाद उच्च न्यायालय, लखनऊ एवं समिति की सदस्य ने भी प्रतिभागियों को संबोधित किया।

माननीय श्रीमती न्यायमूर्ति संगीता चंद्रा ने प्रारंभिक उद्बोधन में व्यक्त किया कि इस कार्यशाला का उद्देश्य लिंग मुद्दों के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना है तथा समानता के साथ भिन्नताओं का सम्मान करना है। माननीय न्यायमूर्ति ने कहा कि हमारे दैनिक जीवन व कार्य में जो मौन पूर्वाग्रह हैं, उन्हें समझना और उन्हें समाप्त करना आवश्यक है।

माननीय न्यायमूर्ति ने स्पष्ट किया कि कैसे कानून, समाज, अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र और लिंग जैसे विविध क्षेत्र आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं, जिन्हें इस कार्यशाला के माध्यम से उजागर किया जाएगा। माननीय श्री न्यायमूर्ति सिधार्थ ने लैंगिक संवेदीकरण की मूल भावना तथा “Sex” और “Gender” के बीच के अंतर को रेखाकित करते हुए बताया कि समय के साथ परंपरागत कार्य विभाजन का स्वरूप बदला है और यह परिवर्तन जटिल सामाजिक मुद्दों को जन्म दे रहा है, जिन पर गंभीर चर्चा आवश्यक है। माननीय न्यायमूर्ति ने जाँ जाक रूसो के प्रसिद्ध शब्द उधृत किए “मनुष्य स्वतंत्र जन्म लेता है, फिर भी हर कहीं जंजीरों में है जिससे मानसिक बंधनों को तोड़ने का संदेश दिया।

माननीय श्री न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ल ने मुख्य उबोधन में लैगिक संबंधों के व्यवहारिक एवं सामाजिक प्रभावों की चर्चा की। माननीय न्यायमूर्ति ने इस बात पर बल दिया कि निर्णय निष्पक्ष, समावेशी एवं पूर्वाग्रह-मुक्त होने चाहिए, जिसके लिए लिंग तथा यौन अपराधों से संबंधित रूढ़ियों को तोड़ना आवश्यक है। माननीय न्यायमूर्ति द्वारा राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014) का उदाहरण लिंग विमर्श की प्रवाहशीलता के संदर्भ में तथा पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह (1996) का उदाहरण यौन अपराधों में सलिप्त पूर्वग्रहों को तोड़ने की आवश्यकता के लिए प्रस्तुत किया गया।
माननीय श्रीमती न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान ने प्रतिभागियों को संबोधित करते हुए कहा कि लैगिक विषयों में संतुलित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। माननीय न्यायमूर्ति ने उदाहरणों के माध्यम से लैंगिक पक्षपात की ओर ध्यान आकृष्ट किया और कहा कि वास्तविक न्याय तभी संभव है जब इन पूर्वाग्रहों का उन्मूलन हो। साथ ही माननीय न्यायमूर्ति ने संवादात्मक सहभागिता और विचार- विमर्श के महत्व को व्यक्त किया, ताकि ऐसी कार्यशालाओं से प्रतिभागी एक-दूसरे के विचारों और अनुभवों से सीख सकें।
कार्यशाला के सत्रों को लखनऊ विश्वविद्यालय के जेंडर सेंसिटाइजेशन सेल प्रोफेसर रोली मिश्रा, डॉ. प्रशांत शुक्ला एवं डॉ. सोनाली रॉय चौधरी द्वारा संचालित किया गया। कार्यशाला को संवादात्मक एवं चर्चा आधारित रूप में तैयार किया गया, जिसका उद्देश्य प्रतिभागियों की लैंगिक दृष्टिकोण को बदलना था।
प्रोफेसर रोली मिश्रा ने इस दो दिवसीय कार्यशाला की रूपरेखा प्रस्तुत की और पारिवारिक न्यायालय मामलों के संवेदीकरण के लिए माननीय समिति, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के प्रति x आभार व्यक्त किया। उन्होंने समाज में व्याप्त सामान्य लैंगिक रूढ़ियों का उल्लेख करते हुए, हिंसा और असमानता के समाधान के लिए सहानुभूति की आवश्यकता पर बल दिया। साथ ही, उन्होंने प्रचलित कानून के प्रभावी क्रियान्वयन पर भी बल दिया।
डॉ. प्रशांत शुक्ल ने उद्घाटन सत्र में ‘लेंगिक समझ’ विषय पर प्रतिष्ठित सभा को संबोधित किया और कहा कि यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि पुस्तकों में क्या कहा गया है, ताकि हमें यह समझ आ सके कि वास्तव में क्या किया जाना चाहिए। उन्होंने कार्यशाला की दिशा एवं विषय के संदर्भ में यह स्पष्ट किया कि “equality” और “equity” में अंतर होता है, और जेंडर सेंसिटाइजेशन का अर्थ पूर्ण समानता नहीं, बल्कि विविधताओं को समझना और उनका सम्मान करना है।

पूर्वग्रहों को तोड़ने तथा उनसे मुक्त होने के विषय में भी एक सत्र आयोजित किया गया, जिसमें लैगिक भूमिकाओं एवं भूमिका परिवर्तन पर चर्चा की गई। इसके उपरांत एक इंटरैक्टिव (परस्पर संवादात्मक) तथा गतिविधि सत्र आयोजित किया गया, जिसमें प्रतिभागी अधिकारियों ने अपने अपने अनुभव साझा किए।
द्वितीय दिवस पर – लिंग संवेदनशीलता (Gender Sensitivity) पर चर्चा विभिन्न न्यायनिर्णयों (case laws) के माध्यम से की गई, जिसके उपरांत एक सत्र आयोजित किया गया, जिसमें मीडिया क्लिप्स के माध्यम से लिंग संवेदनशीलता के विविध पहलुओं पर चर्चा की गई।

समापन सत्र में मा. श्रीमती न्यायमूर्ति संगीता चंद्रा, न्यायाधीश, इलाहाबाद उच्च न्यायालय, लखनऊ तथा अध्यक्ष, पारिवारिक न्यायालय मामलों की संवेदीकरण समिति, इलाहाबाद उच्च न्यायालय; मा. श्री न्यायमूर्ति जसप्रीत सिंह, न्यायाधीश, इलाहाबाद उच्च न्यायालय, लखनऊ तथा सदस्य, पारिवारिक न्यायालय मामलों की संवेदीकरण समिति, इलाहाबाद उच्च न्यायालय; और मा. श्रीमती न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान, न्यायाधीश, इलाहाबाद उच्च न्यायालय तथा सदस्य, पारिवारिक न्यायालय मामलों की संवेदीकरण समिति, इलाहाबाद उच्च न्यायालय उपस्थित रहे।
समापन सत्र में मा. श्री न्यायमूर्ति जसप्रीत सिंह ने समापन उद्बोधन एवं धन्यवाद ज्ञापन किया। मा. न्यायमूर्ति ने ऐसी कार्यशालाओं की सफलता के लिए तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं – अंतःकरण में समावेश, स्मरण तथा पुनःप्राप्ति –की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने “इंटरसेक्शनैलिटी” (बहुस्तरीय पहचान एवं भिन्नताओं के समागम) की अवधारणा तथा संवेदनशीलता को और अधिक बढ़ाने की आवश्यकता का उल्लेख किया। इसके साथ ही उन्होंने “Men are from Mars, Women are from Venus” पुस्तक का भी उल्लेख किया। मा. न्यायमूर्ति ने कहा कि एक न्यायाधीश के रूप में संवेदनशीलता हमारे व्यक्तिगत व्यवहार तथा संपूर्ण न्यायिक संस्थान में परिलक्षित होनी चाहिए।