14 मार्च 2025 को दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास (30, तुगलक क्रेसेंट, नई दिल्ली) में आग लग गई। जब दमकलकर्मी एक बाहरी स्टोररूम में लगी आग बुझा रहे थे, तब उन्हें कथित रूप से बड़ी मात्रा में नकदी मिली—जो कि कुछ रिपोर्ट्स के अनुसार लगभग 15 करोड़ रुपये थी, और जिसे जूट की बोरियों में भरकर रखा गया था। यह नकदी आंशिक रूप से जली हुई पाई गई। इस घटना ने देश भर में आक्रोश और बहस छेड़ दी—सबसे अहम सवाल यह उठा कि जस्टिस वर्मा के खिलाफ तुरंत FIR क्यों दर्ज नहीं की गई?
इस सवाल का जवाब भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित एक विशेष कानूनी व्यवस्था में मिलता है, जिसे गृह मंत्री अमित शाह ने Times Now Summit 2025 में अपने बयान के माध्यम से और स्पष्ट किया।
घटना और उसके बाद की स्थिति
जब आग लगी, उस समय जस्टिस वर्मा भोपाल में थे, और उनके परिवार ने फौरन आपातकालीन सेवाओं को सूचना दी। आग बुझने के बाद नकदी की बरामदगी की खबरें सामने आईं, जिसके बाद दिल्ली पुलिस ने वरिष्ठ अधिकारियों को सूचित किया और उन्होंने इसकी जानकारी मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना को दी। कथित रूप से जली हुई करेंसी की तस्वीरें और वीडियो न्यायिक अधिकारियों के साथ साझा की गईं। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने तुरंत कदम उठाते हुए FIR दर्ज करने के बजाय इन-हाउस जांच का आदेश दिया।

जस्टिस वर्मा को उनके मूल पदस्थान इलाहाबाद हाई कोर्ट स्थानांतरित कर दिया गया, और उन्हें न्यायिक कार्यों से हटा दिया गया जब तक जांच पूरी न हो जाए। हालांकि, आम जनता के मन में यह सवाल लगातार बना रहा कि एक आम व्यक्ति पर ऐसी स्थिति में तुरंत FIR दर्ज हो जाती है, फिर न्यायाधीश के मामले में अलग प्रक्रिया क्यों?
जस्टिस वर्मा ने इन आरोपों को खारिज करते हुए दावा किया कि उनके निवास से कोई नकदी बरामद नहीं हुई। उन्होंने यह भी कहा कि आग जिस स्थान पर लगी, वह खुला बाहरी कमरा था जिसे उनके स्टाफ और CPWD के कर्मचारी भी उपयोग करते थे। उन्होंने इस पूरी घटना को अपनी छवि धूमिल करने की साजिश बताया।
कानून क्या कहता है?
FIR दर्ज न होने की मूल वजह है सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला – K. Veeraswami बनाम भारत संघ (1991)। इस फैसले में यह तय हुआ कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के वर्तमान न्यायाधीशों के खिलाफ आपराधिक अभियोजन, जिसमें FIR भी शामिल है, CJI की पूर्व अनुमति के बिना नहीं हो सकता।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि न्यायाधीश लोक सेवक होते हैं और उन पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत कार्रवाई की जा सकती है, लेकिन उन्हें झूठे मामलों और उत्पीड़न से बचाने के लिए यह प्रक्रिया अपनाई गई है। CJI को पहले आरोपों का आकलन करना होता है, और यदि वह उचित पाते हैं, तो राष्ट्रपति को FIR की अनुमति देने की सिफारिश की जा सकती है।
यह व्यवस्था न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन बनाए रखने के उद्देश्य से बनाई गई थी। इस फैसले को बाद में Ravichandran Iyer बनाम Justice A.M. Bhattacharjee (1995) के मामले में और औपचारिक रूप से स्पष्ट किया गया, जिसमें इन-हाउस प्रक्रिया की रूपरेखा तय की गई।
जस्टिस वर्मा के मामले में क्या हुआ?
CJI संजीव खन्ना ने इस मामले की जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की, जिसमें शामिल हैं:
- जस्टिस शील नागू (सुप्रीम कोर्ट),
- जस्टिस जी.एस. संधावालिया (मुख्य न्यायाधीश, हाई कोर्ट),
- जस्टिस अनु शिवराम (मुख्य न्यायाधीश, हाई कोर्ट)।
दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय ने प्रारंभिक रिपोर्ट सौंपी और सुप्रीम कोर्ट ने पारदर्शिता बनाए रखने के लिए इन दस्तावेजों को सार्वजनिक किया। अब यह समिति अपनी रिपोर्ट देगी, जिसके आधार पर तय होगा कि क्या जस्टिस वर्मा को क्लीन चिट दी जाए या उनके खिलाफ आपराधिक कार्रवाई या महाभियोग की सिफारिश की जाए।
गृह मंत्री अमित शाह का बयान – Times Now Summit 2025 में
28 मार्च 2025 को Times Now Summit 2025 में बोलते हुए, गृह मंत्री अमित शाह ने सरकार की पहली सार्वजनिक प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा:
“CJI की अनुमति के बिना कोई FIR दर्ज नहीं की जा सकती। जब FIR नहीं हो सकती, तो जब्ती कैसे हो सकती है? एक पैनल इस मामले की जांच कर रहा है, और हमें उसकी रिपोर्ट का इंतजार करना चाहिए।”
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि दिल्ली पुलिस और फायर ब्रिगेड पूरी तरह से जांच समिति का सहयोग कर रहे हैं, और सभी आवश्यक दस्तावेज प्रदान किए जा रहे हैं। उन्होंने जनता से धैर्य रखने की अपील की।
आलोचना और बहस
Veeraswami फैसला और इन-हाउस प्रक्रिया लंबे समय से विवाद का विषय रहे हैं। आलोचकों का कहना है कि CJI की पूर्व अनुमति जैसी व्यवस्था न्यायाधीशों को विशेषाधिकार देती है, जिससे वे आम नागरिकों की तरह तत्काल जवाबदेही से बच जाते हैं।
जस्टिस वर्मा के मामले में वकील मैथ्यूज जे. नेदुमपारा जैसे याचिकाकर्ताओं ने FIR में देरी को सबूतों से छेड़छाड़ और जनता के विश्वास के ह्रास की आशंका बताया। उन्होंने 1991 के फैसले को “कानून के समक्ष समानता” के संविधानिक सिद्धांत के विरुद्ध बताया।
वहीं समर्थकों का मानना है कि न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए यह सुरक्षा जरूरी है, ताकि न्यायाधीशों के खिलाफ राजनीतिक या व्यक्तिगत बदले की भावना से दुरुपयोग न हो। इन-हाउस प्रक्रिया निष्पक्ष जांच का एक संतुलित तरीका है।
अब आगे क्या होगा?
29 मार्च 2025 तक, जस्टिस वर्मा के भविष्य का निर्धारण इन-हाउस समिति की रिपोर्ट पर निर्भर करता है। अगर समिति को कोई आपराधिकता नहीं मिलती, तो संभवतः उन्हें इलाहाबाद हाई कोर्ट में स्थानांतरित पद पर वापस न्यायिक कार्य सौंपा जा सकता है। लेकिन यदि प्रथम दृष्टया कोई गड़बड़ी सामने आती है, तो CJI FIR की अनुमति दे सकते हैं या मामला संसद में महाभियोग के लिए भेजा जा सकता है, जो एक लंबी और कठिन प्रक्रिया है, जिसमें संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है।