फैमिली कोर्ट्स एक्ट का ‘ओवरराइडिंग इफेक्ट’, वैवाहिक मुकदमों में स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट की धारा 34 की बाधा लागू नहीं: पटना हाईकोर्ट

पटना हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट, 1963 की धारा 34 के तहत घोषणात्मक मुकदमों (declaratory suits) पर लगने वाली रोक फैमिली कोर्ट्स एक्ट, 1984 के तहत चलने वाली वैवाहिक कार्यवाही पर लागू नहीं होती है। जस्टिस बिबेक चौधरी और जस्टिस अंशुमान की खंडपीठ ने माना कि फैमिली कोर्ट्स एक्ट की धारा 20 का अन्य कानूनों के असंगत प्रावधानों पर ‘ओवरराइडिंग इफेक्ट’ (सर्वोपरि प्रभाव) है।

कोर्ट ने पति (अपीलकर्ता) द्वारा दायर विविध अपील (Miscellaneous Appeal) को खारिज कर दिया और फैमिली कोर्ट के उस डिक्री को बरकरार रखा, जिसमें उसकी दूसरी शादी को अमान्य और शून्य घोषित किया गया था।

मामले की पृष्ठभूमि

यह अपील (विविध अपील संख्या 587/2022) प्रधान न्यायाधीश, फैमिली कोर्ट, बेगूसराय द्वारा 29 सितंबर 2022 और 14 अक्टूबर 2022 को वैवाहिक वाद संख्या 176/2010 में पारित निर्णय और डिक्री के खिलाफ दायर की गई थी।

प्रतिवादी (पहली पत्नी) ने यह घोषणा करने के लिए वैवाहिक मामला दायर किया था कि अपीलकर्ता और दूसरी प्रतिवादी के बीच हुई शादी अमान्य और शून्य है। फैमिली कोर्ट ने याचिका को स्वीकार करते हुए दूसरी शादी को शून्य घोषित कर दिया। इसके बाद अपीलकर्ता ने फैमिली कोर्ट्स एक्ट, 1984 की धारा 19(1) के तहत हाईकोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी।

पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ता के वकील ने निचली अदालत के फैसले को चुनौती देने के लिए मुख्य रूप से दो आधार प्रस्तुत किए:

  1. साक्ष्यों का मूल्यांकन: यह तर्क दिया गया कि फैमिली कोर्ट ने पीडब्लू 3 (प्रतिवादी के पिता) की गवाही का सही मूल्यांकन नहीं किया, जिन्होंने कथित तौर पर अपीलकर्ता के पक्ष में बयान दिया था।
  2. स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट के तहत बाधा: वकील ने तर्क दिया कि यह मुकदमा स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट, 1963 की धारा 34 के तहत बाधित है। उनका कहना था कि प्रतिवादी ने केवल शादी की शून्यता की घोषणा की मांग की थी, जबकि उसने किसी अन्य राहत (जैसे दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना) की मांग नहीं की थी। अपीलकर्ता ने जोर दिया कि धारा 34 के प्रावधान के अनुसार, यदि वादी आगे की राहत मांगने में सक्षम होने के बावजूद ऐसा नहीं करता है, तो कोर्ट घोषणा नहीं कर सकता।
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प्रतिवादियों के वकीलों ने मुकदमे की पोषणीयता (maintainability) और निचली अदालत के फैसले का समर्थन किया।

कोर्ट का विश्लेषण और अवलोकन

खंडपीठ ने निर्णय के लिए दो बिंदु निर्धारित किए: क्या पीडब्लू 3 के साक्ष्य पर विचार न करना फैसले के लिए घातक था, और क्या स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट की धारा 34 फैमिली कोर्ट के समक्ष दायर घोषणात्मक मुकदमे पर कोई रोक लगाती है।

साक्ष्यों के मूल्यांकन पर पहले मुद्दे पर, कोर्ट ने पाया कि फैमिली कोर्ट ने तस्वीरों और मध्यस्थता केंद्र (Mediation Centre) के दस्तावेजों सहित विभिन्न प्रदर्शों (exhibits) की विस्तृत चर्चा के आधार पर अपने निष्कर्ष निकाले थे।

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जस्टिस डॉ. अंशुमान ने फैसला लिखते हुए कहा:

“स्वीकार्य रूप से, वर्तमान कार्यवाही एक दीवानी कार्यवाही (civil proceeding) है और दीवानी कार्यवाही में सबूत का मानक ‘संभावना की प्रबलता’ (preponderance of probability) है।”

कोर्ट ने माना कि चूंकि प्रधान न्यायाधीश ने ‘संभावना की प्रबलता’ के आधार पर मुकदमे का फैसला किया है, इसलिए “मौखिक साक्ष्य में मामूली विरोधाभास वर्तमान अपीलकर्ता की किसी भी तरह से मदद नहीं करेगा।”

स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट की धारा 34 की प्रयोज्यता पर कोर्ट ने स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट और फैमिली कोर्ट्स एक्ट के बीच के टकराव का विस्तार से विश्लेषण किया। पीठ ने स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट की धारा 34 की जांच की, जो अदालतों को केवल घोषणा करने से रोकती है यदि वादी उपलब्ध अन्य राहत मांगने में विफल रहता है।

हालाँकि, कोर्ट ने इसकी तुलना फैमिली कोर्ट्स एक्ट, 1984 की धारा 20 से की, जो कहती है:

“इस अधिनियम के प्रावधानों का प्रभाव, तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य कानून में या इस अधिनियम के अलावा किसी अन्य कानून के आधार पर प्रभावी किसी भी लिखित में निहित किसी भी असंगत बात के बावजूद होगा।”

पीठ ने तर्क दिया कि चूंकि स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट 1963 में और फैमिली कोर्ट्स एक्ट 1984 में अधिनियमित किया गया था, इसलिए बाद वाला कानून (फैमिली कोर्ट्स एक्ट) प्रभावी होगा। कोर्ट ने अवलोकन किया:

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“फैमिली कोर्ट्स एक्ट, 1984 की धारा 20 के कारण स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट, 1963 के तहत निर्धारित सिद्धांत फैमिली कोर्ट्स एक्ट, 1984 के तहत दायर मुकदमों पर लागू नहीं होंगे… फैमिली कोर्ट्स एक्ट, 1984 की धारा 20 के ‘ओवरराइडिंग इफेक्ट’ के कारण, ऐसी किसी भी राहत [दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना] की मांग न करना प्रधान न्यायाधीश, फैमिली कोर्ट द्वारा पारित निर्णय और डिक्री पर कोई छाया नहीं डालेगा।”

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भले ही आवेदक ने दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के संबंध में राहत की मांग नहीं की हो, फिर भी विवाह की वैधता की घोषणा के लिए मुकदमा फैमिली कोर्ट्स एक्ट की धारा 7 के तहत पोषणीय (maintainable) है।

निर्णय

हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि फैमिली कोर्ट के फैसले में कोई अवैधता नहीं थी। पीठ ने कहा कि “ऐसी किसी भी राहत [दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना] की मांग न करना निर्णय और डिक्री पर कोई छाया नहीं डालेगा।”

तदनुसार, कोर्ट ने विविध अपील को खारिज कर दिया और अपीलकर्ता व दूसरी प्रतिवादी के बीच की शादी को अमान्य और शून्य घोषित करने वाली डिक्री की पुष्टि की।

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