दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि घरेलू हिंसा के आरोपों में यदि महिला प्रताड़ना की सटीक तिथि और समय नहीं बता पाती, तो मात्र इसी आधार पर उसके आरोपों को निराधार नहीं ठहराया जा सकता। साथ ही, कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि पति अपनी पत्नी और बच्चे को कोई भी भरण-पोषण नहीं देता है, तो यह घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के तहत ‘आर्थिक शोषण’ की श्रेणी में आता है।
न्यायमूर्ति अमित महाजन की एकल पीठ ने निचली अपीलीय अदालत के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें महिला और उसके बच्चे को भरण-पोषण से इनकार कर दिया गया था। हाईकोर्ट ने मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश को बहाल करते हुए पति को पत्नी और बच्चे को प्रत्येक को ₹4,000 प्रतिमाह भरण-पोषण देने का निर्देश दिया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भरण-पोषण न देना एक प्रकार का आर्थिक शोषण है।
मामला क्या था?
महिला ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत शिकायत दर्ज करवाई थी। उसने बताया कि उसकी शादी वर्ष 2011 में हुई थी और एक संतान भी है। शिकायत में आरोप लगाया गया कि शादी के बाद से ही दहेज की मांग की जाती रही, जिसमें मोटरसाइकिल की मांग भी शामिल थी। अप्रैल 2012 में जब वह अपने ससुराल पक्ष की बहन की शादी के लिए ₹50,000 की व्यवस्था नहीं कर पाई, तो उसे पीटकर घर से निकाल दिया गया।

वर्ष 2018 में मजिस्ट्रेट ने पाया कि महिला ने शारीरिक हिंसा के आरोपों को पुलिस शिकायतों या स्वतंत्र गवाहों से सिद्ध नहीं किया, लेकिन पति द्वारा पत्नी और बच्चे की उपेक्षा को ‘आर्थिक शोषण’ माना। पति की मासिक आय ₹20,000 मानी गई और उसी आधार पर ₹4,000 प्रति व्यक्ति का भरण-पोषण तय किया गया।
हालांकि, 2019 में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (ASJ) ने मजिस्ट्रेट के इस आदेश को पलट दिया। ASJ ने कहा कि चूंकि शारीरिक क्रूरता सिद्ध नहीं हुई और महिला ने स्वयं घर छोड़ा, इसलिए उसे भरण-पोषण का अधिकार नहीं है। इस निर्णय को महिला ने हाईकोर्ट में चुनौती दी।
हाईकोर्ट में पक्षों की दलीलें
महिला की ओर से तर्क दिया गया कि ASJ ने गैरकानूनी रूप से भरण-पोषण को खारिज किया, जबकि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत भरण-पोषण न देना भी ‘आर्थिक शोषण’ की श्रेणी में आता है।
वहीं, पति की ओर से कहा गया कि जब घरेलू हिंसा सिद्ध नहीं हुई तो भरण-पोषण का आदेश भी गलत है, और यह भी दावा किया गया कि पत्नी अपनी मर्जी से उसे छोड़कर चली गई थी।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
न्यायमूर्ति अमित महाजन ने तथ्यों का सूक्ष्म परीक्षण करने के बाद पत्नी के पक्ष में निर्णय दिया। उन्होंने कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम में ‘घरेलू हिंसा’ की परिभाषा विस्तृत है और इसमें ‘आर्थिक शोषण’ को स्पष्ट रूप से शामिल किया गया है।
कोर्ट ने पति के बयान को परस्पर विरोधाभासी पाया और कहा:
“यह स्पष्ट है कि पति ने यह नहीं बताया कि पत्नी ने उसका साथ क्यों छोड़ा। एक ओर तो पति यह कहता है कि पत्नी अपनी मर्जी से अलग हुई, लेकिन दूसरी ओर उसने वैवाहिक अधिकारों की पुनःस्थापना की कोई याचिका भी दाखिल नहीं की।”
हाईकोर्ट ने निचली अदालत की इस सोच को खारिज कर दिया कि आरोपों की सटीक तिथि और समय न बताने से मामला निराधार हो जाता है।
“केवल इसलिए कि याचिकाकर्ता प्रताड़ना की सटीक तिथि और समय नहीं बता सकी, इसका यह अर्थ नहीं है कि उसका मामला आधारहीन है,” कोर्ट ने कहा।
महत्वपूर्ण रूप से, कोर्ट ने यह भी कहा कि पति ने अपने बयान में यह स्वीकार किया कि उसने पत्नी के परिवार से मोटरसाइकिल प्राप्त की थी और वर्तमान में वह उनके फर्नीचर, वॉशिंग मशीन, सिलाई मशीन, अलमारी, पलंग, स्टूल, टीवी और अन्य सामानों का उपयोग कर रहा है। इसके अलावा, महिला द्वारा महिला अपराध शाखा (CAW Cell) में शिकायत दर्ज कराई गई थी।
कोर्ट ने कहा, “इन सभी तथ्यों के मद्देनज़र, यह नहीं कहा जा सकता कि याचिकाकर्ता का मामला पूरी तरह निराधार है।”
आर्थिक शोषण और भरण-पोषण का निर्धारण
कोर्ट ने यह भी माना कि वर्ष 2012 से लेकर अब तक पति ने पत्नी और बच्चे के लिए कोई भरण-पोषण नहीं दिया है, जो कि स्पष्ट रूप से आर्थिक शोषण है।
“यह भी पति का मामला नहीं है कि उसने याचिकाकर्ता और नाबालिग संतान के लिए कोई भरण-पोषण राशि दी हो। अतः यह कोर्ट मानती है कि याचिकाकर्ता को ‘आर्थिक शोषण’ के आधार पर मुआवजा मिलना चाहिए,” निर्णय में कहा गया।
जहां तक भरण-पोषण की राशि का प्रश्न है, कोर्ट ने मजिस्ट्रेट द्वारा ₹20,000 प्रति माह आय का आकलन सही माना, क्योंकि पति ने अपनी आय को लेकर कोई विश्वसनीय दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया था। चूंकि उसके ऊपर कोई अन्य आश्रित नहीं था, इसलिए ₹4,000 की राशि पत्नी और बच्चे दोनों के लिए उचित मानी गई।
हाईकोर्ट ने याचिका को स्वीकार करते हुए ASJ का आदेश रद्द कर दिया और मजिस्ट्रेट द्वारा तय की गई भरण-पोषण की राशि को बहाल कर दिया।