मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति अमितेंद्र किशोर प्रसाद की छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की खंडपीठ ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में एकल न्यायाधीश के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें राज्य सरकार द्वारा नवगठित नगर पंचायतों के लिए समितियों के गठन को रद्द कर दिया गया था। निर्णय ने कार्यकारी निर्देशों पर विधायी प्रावधानों की प्रधानता की जोरदार पुष्टि की।
मामले की पृष्ठभूमि
छत्तीसगढ़ नगर पालिका अधिनियम, 1961 की धारा 16(1) के तहत जारी राज्य सरकार की 27 जून, 2024 की अधिसूचना को चुनौती देने वाली रिट याचिकाओं की एक श्रृंखला से अपीलें उत्पन्न हुईं। इस अधिसूचना ने नव-उन्नत नगर पंचायतों को संचालित करने के लिए समितियों का गठन किया। प्रभावित ग्राम पंचायतों में मरवाही, जनकपुर, कोपरा, सरसीवा और पवनी शामिल थीं, जहां निर्वाचित ग्राम पंचायत प्रतिनिधियों ने तर्क दिया था कि उन्हें विधिवत निर्वाचित नगर पंचायत निकायों के गठन तक शासन का अधिकार बरकरार रखना चाहिए।
एकल न्यायाधीश ने अधिनियम की धारा 5(1) के दूसरे प्रावधान का हवाला देते हुए अधिसूचनाओं को रद्द कर दिया था, जो मौजूदा ग्राम पंचायतों को संक्रमणकालीन चरण के दौरान काम करने की अनुमति देता है। इस निर्णय को राज्य सरकार ने चुनौती दी थी।
मुख्य कानूनी मुद्दे
1. छत्तीसगढ़ नगर पालिका अधिनियम, 1961 की धारा 5 बनाम धारा 16 की व्याख्या:
– अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि एक बार नगर पंचायत का गठन हो जाने के बाद, धारा 7(ए) और धारा 16(1) धारा 5 के तहत संक्रमणकालीन व्यवस्था को खत्म करते हुए एक समिति के गठन को अनिवार्य बनाती है।
– प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि धारा 5 के तहत संक्रमणकालीन प्रावधानों ने ग्राम पंचायतों को नगर पंचायतों के चुनावों तक शासन करने की अनुमति दी।
2. कार्यकारी परिपत्रों का दायरा:
– प्रतिवादियों ने 2003 के एक परिपत्र पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि ग्राम पंचायतों को नवगठित नगर पंचायतों के लिए काम करना जारी रखना चाहिए।
– राज्य सरकार ने जवाब दिया कि कार्यकारी निर्देशों द्वारा वैधानिक प्रावधानों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है।
3. संवैधानिक चिंताएँ:
– प्रतिवादियों ने संविधान के अनुच्छेद 243-ई का हवाला दिया, जो निर्वाचित पंचायतों के लिए पाँच वर्ष का कार्यकाल अनिवार्य करता है।
न्यायालय का निर्णय और अवलोकन
अपने विस्तृत निर्णय में, पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि राज्य सरकार ने छत्तीसगढ़ नगर पालिका अधिनियम, 1961 की धारा 16(1) के तहत अपने वैधानिक अधिकार के अंतर्गत कार्य किया। न्यायालय ने निम्नलिखित मुख्य अवलोकन किए:
– विधायी सर्वोच्चता पर: न्यायालय ने ललित मोहन देब बनाम भारत संघ और केरल राज्य बनाम के. प्रसाद जैसे उदाहरणों का हवाला देते हुए कहा, “कार्यकारी निर्देश या परिपत्र वैधानिक प्रावधानों को दरकिनार नहीं कर सकते।” पीठ ने 2003 के परिपत्र पर निर्भरता को अस्वीकार कर दिया, जिसमें कथित तौर पर ग्राम पंचायतों को संक्रमण के दौरान नगर पंचायतों पर शासन करने की अनुमति दी गई थी।
– सामंजस्यपूर्ण निर्माण पर: “विधानसभा का उद्देश्य नगर पंचायत की अधिसूचना के तुरंत बाद एक समिति के गठन को अनिवार्य बनाकर सुचारू शासन सुनिश्चित करना है। धारा 5 के तहत संक्रमणकालीन व्यवस्था के प्रावधान नगर पंचायत के अस्तित्व में आने के बाद लागू नहीं होते हैं,” फैसले में जोर दिया गया।
– संवैधानिक कार्यकाल पर: अदालत ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 243-ई के तहत प्रावधान पंचायतों को नगर पंचायतों में पुनर्गठित करने से नहीं रोकते हैं, क्योंकि यह पुनर्गठन प्रशासनिक विघटन के बजाय एक विधायी कार्य है।
खंडपीठ ने राज्य की अपीलों (डब्लू.ए. संख्या 714/2024, 712/2024, 723/2024, 733/2024, और 734/2024) को स्वीकार कर लिया और रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया। इसने छत्तीसगढ़ नगर पालिका अधिनियम, 1961 की धारा 16(1) के तहत गठित समितियों की वैधता को बरकरार रखा।
वकील प्रतिनिधित्व
राज्य का प्रतिनिधित्व महाधिवक्ता प्रफुल एन. भरत ने किया, जिनकी सहायता उप महाधिवक्ता शशांक ठाकुर ने की। रिट याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व वरिष्ठ अधिवक्ता आनंद मोहन तिवारी, पराग कोटेचा, रजनीश सिंह बघेल और सुनील साहू ने किया।