सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में अभिनिर्धारित किया है कि ट्रायल कोर्ट की डिक्री द्वारा निर्धारित समय सीमा के भीतर शेष बिक्री प्रतिफल (Balance Sale Consideration) जमा करने में विफलता, स्वतः ही डिक्री को निष्पादन के अयोग्य (Inexecutable) नहीं बनाती है और न ही यह अनुबंध के परित्याग (Abandonment) के समान है। यह विशेष रूप से तब लागू होता है जब ट्रायल कोर्ट की डिक्री अपीलीय अदालत के अंतिम निर्णय में विलीन (Merge) हो गई हो।
न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की खंडपीठ ने पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें खरीद राशि जमा करने में देरी के आधार पर निष्पादन याचिका (Execution Petition) को खारिज कर दिया गया था। शीर्ष अदालत ने निष्पादन न्यायालय (Executing Court) के आदेश को बहाल करते हुए बिक्री विलेख (Sale Deed) के निष्पादन के साथ आगे बढ़ने का निर्देश दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद 11 दिसंबर, 2004 के एक ‘बिक्री इकरारनामे’ (Agreement to Sell) से उत्पन्न हुआ, जो कालका, जिला पंचकूला में स्थित 2 बिस्वा, 10 बिस्वांसी के एक प्लॉट के संबंध में था। कुल बिक्री प्रतिफल 9,05,000 रुपये तय किया गया था, जिसमें से 1,00,000 रुपये बयाना राशि (Earnest Money) के रूप में अदा किए गए थे।
जब बिक्री विलेख निष्पादित नहीं किया गया, तो अपीलकर्ता (वादी) ने विशिष्ट अनुपालन (Specific Performance) के लिए एक मुकदमा दायर किया। ट्रायल कोर्ट ने 14 मई, 2011 को मुकदमे की डिक्री दी और प्रतिवादी को दो महीने के भीतर वादी से शेष 8,05,000 रुपये प्राप्त करने पर बिक्री विलेख निष्पादित करने का निर्देश दिया।
हालांकि, प्रथम अपीलीय न्यायालय ने 22 अप्रैल, 2013 को इस निष्कर्ष को पलट दिया और केवल बयाना राशि की दोगुनी वसूली का आदेश दिया। बाद में, नियमित द्वितीय अपील (RSA) में, हाईकोर्ट ने 8 फरवरी, 2016 के फैसले के माध्यम से प्रथम अपीलीय न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया और ट्रायल कोर्ट की डिक्री को बहाल कर दिया।
अपीलकर्ता ने 4 जुलाई, 2016 को निष्पादन आवेदन दायर किया और 26 अगस्त, 2016 व 13 दिसंबर, 2016 को किस्तों में शेष राशि जमा की। प्रतिवादी ने देरी के संबंध में आपत्ति जताई, यह तर्क देते हुए कि राशि डिक्री द्वारा निर्धारित दो महीने की अवधि के भीतर जमा नहीं की गई थी। जबकि निष्पादन न्यायालय ने 20 जनवरी, 2018 को इन आपत्तियों को खारिज कर दिया था, हाईकोर्ट ने 8 अगस्त, 2022 के अपने आदेश में आपत्तियों को स्वीकार कर लिया और निष्पादन याचिका को खारिज कर दिया। हाईकोर्ट का कहना था कि विस्तारित समय के भीतर पैसा जमा न करके अपीलकर्ता ने अपनी तत्परता (Readiness) नहीं दिखाई।
कानूनी मुद्दा
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य प्रश्न थे:
- क्या निष्पादन आवेदन दायर करने और ट्रायल कोर्ट द्वारा तय की गई दो महीने की अवधि के बाद राशि जमा करने में देरी से डिक्री निष्पादन योग्य नहीं रह जाती है?
- क्या ट्रायल कोर्ट का फैसला हाईकोर्ट के फैसले में विलीन (Merge) हो गया था, और निष्पादन के लिए समय सीमा की गणना कैसे की जानी चाहिए?
दलीलें और हाईकोर्ट का तर्क
हाईकोर्ट ने पाया था कि निष्पादन याचिका दो महीने के विस्तारित समय (द्वितीय अपील के फैसले की तारीख से गणना) के 87 दिन बाद दायर की गई थी। इसने माना कि अपीलकर्ता “पैसे के साथ तैयार नहीं था” और उसने समय बढ़ाने के लिए कोई आवेदन भी नहीं दिया था। हाईकोर्ट इस आधार पर निर्भर था कि केवल निष्पादन आवेदन दायर करने पर निष्पादन न्यायालय के पास समय को स्वचालित रूप से बढ़ाने की शक्ति नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ और विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के “अति-तकनीकी दृष्टिकोण” (Hyper-technical approach) को खारिज कर दिया।
विशिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 28 पर कोर्ट ने विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 28 का उल्लेख किया, जो अदालत को अनुबंध को रद्द करने की अनुमति देती है यदि खरीदार अनुमति अवधि के भीतर पैसे का भुगतान करने में विफल रहता है। हालांकि, पीठ ने स्पष्ट किया कि अदालत के पास इस समय को बढ़ाने की शक्ति भी है।
वी.एस. पलानीचामी चेट्टियार फर्म बनाम सी. अलगप्पन (1999) और रमनकुट्टी गुप्ता बनाम आवारा (1994) के दृष्टांतों का हवाला देते हुए, कोर्ट ने टिप्पणी की:
“निस्संदेह, डिक्री की शर्तों के पालन के लिए डिक्री के भीतर दिए गए समय को उन शर्तों पर बढ़ाया जा सकता है जो न्यायालय उचित समझे।”
हालांकि इस मामले में कोई औपचारिक विस्तार नहीं दिया गया था, कोर्ट ने माना कि यह डिक्री के लिए घातक नहीं होना चाहिए। पीठ ने राम लाल बनाम जरनैल सिंह (2025) के हालिया फैसले पर भरोसा करते हुए कहा:
“ट्रायल कोर्ट द्वारा तय की गई समयावधि के भीतर शेष बिक्री प्रतिफल का भुगतान न करना अनुबंध का परित्याग और उसके परिणामस्वरूप उसे रद्द करना नहीं है। असली परीक्षण यह देखना होना चाहिए कि क्या वादी का आचरण अनुबंध के अपने हिस्से को पूरा करने से सकारात्मक इनकार (Positive Refusal) के बराबर है।”
विलय का सिद्धांत (Doctrine of Merger) कोर्ट ने बलबीर सिंह और अन्य बनाम बलदेव सिंह (2025) के हालिया फैसले और कुन्हायाम्मद बनाम केरल राज्य (2000) के स्थापित उदाहरण का हवाला देते हुए ‘विलय के सिद्धांत’ पर जोर दिया। पीठ ने दोहराया कि “किसी दिए गए समय पर एक से अधिक प्रभावी डिक्री नहीं हो सकती है।” एक बार जब हाईकोर्ट (उच्च मंच) ने द्वितीय अपील का निपटारा कर दिया, तो ट्रायल कोर्ट की डिक्री हाईकोर्ट की डिक्री में विलीन हो गई।
कोर्ट ने नोट किया:
“विलय का सिद्धांत, जैसा कि हमने पहले ही चर्चा की है, का मतलब है कि एक समय में केवल एक ही डिक्री अस्तित्व में रह सकती है। यदि आपत्तियों को खारिज करने वाले आदेश को रद्द कर दिया गया है और निष्पादन याचिका खारिज कर दी गई है, तो ऐसी कोई डिक्री नहीं है जिसे निष्पादित किया जा सके, और इस प्रकार, समय बढ़ाने का प्रश्न ही नहीं उठता।”
देरी और तत्परता पर कोर्ट ने पाया कि निचली अदालतों द्वारा अपीलकर्ता को अनुबंध के अपने हिस्से को पूरा करने के लिए तैयार और इच्छुक (Ready and Willing) माना गया था। इस मामले में विशिष्ट देरी को संबोधित करते हुए, कोर्ट ने कहा:
“भले ही, ऊपर बताई गई तत्परता और इच्छा के निष्कर्ष को देखते हुए, यह स्वीकार करना न्यायोचित होगा कि 27 दिनों की देरी अनुबंध के मूल आधार पर चोट नहीं करेगी।”
(नोट: कोर्ट ने 60 दिनों की अवधि से परे 27 दिनों की देरी की गणना की)।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए 8 अगस्त, 2022 के हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया। प्रतिवादी की आपत्तियों को खारिज करने वाले निष्पादन न्यायालय के आदेश को बहाल कर दिया गया।
कोर्ट ने निर्देश दिया:
“इस फैसले की एक प्रति निष्पादन न्यायालय को भेजी जाए, जो फिर ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित विशिष्ट अनुपालन की डिक्री को निष्पादित करने के लिए कानून के अनुसार आगे बढ़ेगा।”
मामले का विवरण:
- केस टाइटल: डॉ. अमित आर्य बनाम कमलेश कुमारी
- केस संख्या: सिविल अपील संख्या ____ / 2025 (SLP(C) No. 20091/2022 से उत्पन्न)
- कोरम: न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा
- उद्धरण (Citation): 2025 INSC 1486

