सुप्रीम कोर्ट ने 2012 के एक गैंगरेप और हत्या के मामले में मौत की सज़ा पाए एक दोषी सहित दो लोगों को बरी कर दिया है। कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि अगर अभियोजन पक्ष खून के सैंपल लेने की प्रक्रिया को साक्ष्य में साबित करने में विफल रहता है तो डीएनए रिपोर्ट “रद्दी कागज का टुकड़ा” बन जाती है। जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संजय करोल और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने दोषसिद्धि के फैसले को पलटते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष का मामला “पूरी तरह से कमजोर” था और जांच “लचर और घटिया” थी, जिसके कारण अभियुक्तों का दोष संदेह से परे साबित नहीं हो सका।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 4 सितंबर 2012 का है, जब लखनऊ में मुन्ना (PW-1) और श्रीमती चंद्रावती (PW-2) की 12 वर्षीय नाबालिग बेटी शौच के लिए बाहर जाने के बाद लापता हो गई थी। अगली सुबह उसका नग्न शव चावल के खेत में मिला। उसके निजी सामान, जिसमें चप्पल, पानी का लोटा और अंडरवियर शामिल थे, पास के उस खेत से मिले जिस पर अभियुक्त पुताई खेती करता था।
मोहनलालगंज पुलिस स्टेशन में भारतीय दंड संहिता, 1860 की धाराओं 302 (हत्या), 201 (सबूत मिटाना) और 376 (बलात्कार) के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई। जांच के बाद, 7 सितंबर 2012 को अभियुक्त पुताई और दिलीप को गिरफ्तार किया गया।

लखनऊ के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 14 मार्च 2014 को दोनों को दोषी ठहराया। पुताई को हत्या के लिए मौत की सज़ा, जबकि दिलीप को इसी आरोप में आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। दोनों को गैंगरेप के लिए भी आजीवन कारावास की सज़ा दी गई थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 11 अक्टूबर 2018 के अपने फैसले में पुताई की मौत की सज़ा की पुष्टि की और दोनों की अपीलों को खारिज कर दिया, जिसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि दोषसिद्धि केवल “अनुमानों और अटकलों” पर आधारित थी और अभियोजन पक्ष दोषसिद्धि के लिए आवश्यक परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की श्रृंखला को पूरा करने में विफल रहा। उन्होंने हाईकोर्ट में अपील के दौरान पेश की गई एक पूरक डीएनए रिपोर्ट पर भरोसा करने को अनुचित बताया, क्योंकि इसे दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 313 के तहत अभियुक्तों के सामने कभी नहीं रखा गया और न ही उस विशेषज्ञ से जिरह की गई जिसने इसे तैयार किया था।
वहीं, उत्तर प्रदेश राज्य ने इसका विरोध करते हुए कहा कि गवाह अभियुक्तों के पड़ोसी थे और उनके पास उन्हें झूठा फंसाने का कोई कारण नहीं था। अभियोजन पक्ष ने यह भी तर्क दिया कि पुताई के खेत से पीड़िता के सामान की बरामदगी के बाद, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 106 के तहत सबूत का भार अभियुक्त पर आ जाता है।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने साक्ष्यों की गहन समीक्षा के बाद अभियोजन पक्ष के मामले में गंभीर खामियां पाईं। जस्टिस संदीप मेहता द्वारा लिखे गए फैसले में इस मामले को “एक निर्दोष बच्ची के क्रूर बलात्कार और हत्या से जुड़े मामले की विफलता का एक और उत्कृष्ट उदाहरण” बताया गया, जिसका कारण “लचर और घटिया जांच के साथ-साथ संक्षिप्त परीक्षण प्रक्रिया” थी।
त्रुटिपूर्ण डीएनए साक्ष्य: अदालत की सबसे तीखी आलोचना डीएनए साक्ष्य को संभालने के तरीके पर थी। अदालत ने कई “महत्वपूर्ण खामियां” गिनाईं, जिन्होंने रिपोर्ट को “पूरी तरह से अस्वीकार्य” बना दिया:
- सैंपल संग्रह का कोई सबूत नहीं: अभियोजन पक्ष “अभियुक्तों के खून के सैंपल लेने” से संबंधित कोई भी दस्तावेज़ पेश करने और उसे साबित करने में विफल रहा। अदालत ने कहा कि इस विफलता के कारण “डीएनए रिपोर्ट रद्दी कागज का टुकड़ा बन जाती है।”
- कस्टडी की टूटी हुई श्रृंखला: सैंपलों की कस्टडी की श्रृंखला को साबित करने के लिए “सबूतों का पूर्ण अभाव” था। मालखाना इंचार्ज या फोरेंसिक लैब तक सैंपल ले जाने वाले किसी भी अधिकारी से गवाही नहीं कराई गई।
- अस्वीकार्य पूरक रिपोर्ट: एक पूरक डीएनए रिपोर्ट, जो अभियुक्तों को दोषी ठहराती थी, पहली बार हाईकोर्ट में एक हलफनामे के जरिए पेश की गई। अदालत ने इसे CrPC की धारा 293 के तहत अस्वीकार्य ठहराते हुए कहा, “डीएनए रिपोर्ट एक ठोस साक्ष्य है और इसे एक हलफनामे के माध्यम से पेश नहीं किया जा सकता, वह भी एक ऐसे अधिकारी द्वारा जो इस प्रक्रिया से किसी भी तरह से जुड़ा नहीं था।”
- विरोधाभासी रिपोर्टें: अदालत ने पाया कि पहली डीएनए रिपोर्ट अनिर्णायक थी, जबकि पूरक रिपोर्ट विरोधाभासी थी। इस “गंभीर विसंगति” को दूर करने के लिए वैज्ञानिक विशेषज्ञ को दोबारा नहीं बुलाना अभियोजन पक्ष के लिए घातक साबित हुआ।
जांच में अन्य चूकें: अदालत ने अन्य परिस्थितिजन्य साक्ष्यों, जैसे अभियुक्तों के “संदिग्ध आचरण” और स्निफर डॉग से जुड़ी थ्योरी को भी “अविश्वसनीय” और “संदेह के घेरे में” कहकर खारिज कर दिया।
अंतिम निर्णय
अपने विश्लेषण के अंत में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अभियोजन पक्ष अपने मामले को संदेह से परे साबित करने में विफल रहा है। बेंच ने कहा, “रिकॉर्ड पर उपलब्ध साक्ष्यों का सूक्ष्मता से विश्लेषण करने के बाद, हम महसूस करते हैं कि अभियोजन पक्ष निर्णायक सबूतों के माध्यम से अभियुक्तों के अपराध को साबित करने में बुरी तरह से विफल रहा है, जिसे संदेह से परे साबित करना कहा जा सके।”
अपीलों को स्वीकार करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत और हाईकोर्ट द्वारा दी गई दोषसिद्धि और सज़ा को रद्द कर दिया। अभियुक्त पुताई और दिलीप को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और उन्हें तुरंत जेल से रिहा करने का आदेश दिया गया।