पटना हाईकोर्ट ने एक अहम फ़ैसले में तलाक़शुदा मुस्लिम महिलाओं के वित्तीय अधिकारों को मज़बूती देते हुए कहा है कि यदि तलाक के बाद दी गई एकमुश्त इद्दत की रकम महिला के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त नहीं है, तो वह आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के तहत अपने पूर्व पति से गुज़ारा भत्ता मांग सकती है।
मामले की पृष्ठभूमि
न्यायमूर्ति जितेन्द्र कुमार ने 28 फरवरी 2025 को क्रिमिनल रिवीजन संख्या 164/2019 में निर्णय सुनाते हुए पूर्वी चंपारण, मोतिहारी की फैमिली कोर्ट के आदेश को संशोधित किया और गुज़ारा भत्ते की राशि बढ़ाने के साथ-साथ इसे याचिकाकर्ता की नाबालिग बेटी तक भी विस्तारित किया। फैमिली कोर्ट ने पहले पत्नी को केवल ₹1,500 प्रति माह गुज़ारा भत्ता दिया था और बेटी को कोई राहत नहीं दी थी।

यह मामला पत्नी (याचिकाकर्ता संख्या 1) द्वारा दायर किया गया था, जिनका विवाह वर्ष 2007 में इस्लामी रीति-रिवाज़ से प्रतिवादी (पति) से हुआ था। इस विवाह से एक बेटी (याचिकाकर्ता संख्या 2) का जन्म हुआ। पत्नी ने आरोप लगाया कि पति द्वारा ₹2,00,000 के अतिरिक्त दहेज की मांग को लेकर उसके साथ क्रूरता की गई और अंततः उसे ससुराल से निकाल दिया गया।
वर्ष 2012 में पत्नी ने धारा 125 सीआरपीसी के तहत ₹20,000 प्रति माह का भरण-पोषण अपने और बेटी के लिए मांगा। उन्होंने दावा किया कि पति मुंबई में बुटीक चलाता है और कृषि भूमि से भी आय अर्जित करता है, जिससे उसकी मासिक आय ₹30,000 से अधिक है।
पति ने दहेज के आरोपों को नकारते हुए पत्नी पर व्यभिचार का आरोप लगाया और कहा कि पत्नी ने उसे छोड़ दिया है। साथ ही, उसने दावा किया कि 2012 में तीन तलाक़ देकर तलाक दे दिया गया था और दैन-मेहर और इद्दत की रकम भी चुका दी गई है। इसलिए पत्नी अब मासिक भरण-पोषण की हकदार नहीं है।
12 दिसंबर 2018 को फैमिली कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने पत्नी को आदेश की तारीख से ₹1,500 प्रति माह और ₹5,000 मुकदमे की लागत के रूप में दिए, लेकिन बेटी को कोई भत्ता नहीं दिया गया।
पत्नी ने इस आदेश की अपूर्णता और बेटी के लिए राहत न मिलने को लेकर हाईकोर्ट में क्रिमिनल रिवीजन संख्या 164/2019 दायर किया।
प्रमुख कानूनी प्रश्न
- क्या तलाकशुदा मुस्लिम महिला इद्दत की राशि मिलने के बाद भी धारा 125 सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण की मांग कर सकती है?
- क्या फैमिली कोर्ट ने नाबालिग बेटी को गुज़ारा भत्ता न देकर गलती की?
- क्या गुज़ारा भत्ता आवेदन की तारीख से दिया जाना चाहिए या कोर्ट के आदेश की तारीख से?
कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
न्यायमूर्ति जितेन्द्र कुमार ने डेनियल लतीफ़ बनाम भारत संघ [(2001) 7 SCC 740] और मो. अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य [(2025) 2 SCC 49] जैसे सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए कहा:
“मुस्लिम पत्नी अपने पति से विवाह के दौरान धारा 125 सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण की हकदार है, और तलाक के बाद भी यदि वह खुद को संबल नहीं दे पा रही है, तो उसे यह अधिकार बना रहता है, भले ही उसे इद्दत की अवधि के लिए भुगतान किया गया हो।”
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया:
“यह प्रतिवादी का मामला नहीं है कि इद्दत की अवधि में उसने अपनी पूर्व पत्नी के जीवनभर के लिए कोई व्यवस्था की हो… केवल शक के आधार पर व्यभिचार का आरोप लगाया गया है, लेकिन कोई ठोस साक्ष्य नहीं है।”
कोर्ट ने माना कि पत्नी और बेटी अलग रह रही हैं और आत्मनिर्भर नहीं हैं, जबकि पति की मुंबई में दर्ज़ी के काम से स्थिर आय है।
अंतिम आदेश
पटना हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आदेश को संशोधित करते हुए निर्देश दिया:
- पत्नी (याचिकाकर्ता संख्या 1) को ₹2,000 प्रति माह भरण-पोषण दिया जाए।
- बेटी (याचिकाकर्ता संख्या 2) को भी ₹2,000 प्रति माह दिया जाए।
- यह राशि आदेश की तारीख से नहीं, बल्कि मूल आवेदन की तारीख यानी 1 मार्च 2012 से देय होगी।
इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने पटना लीगल सर्विसेज कमेटी को निर्देश दिया कि वह एमिकस क्यूरी अधिवक्ता सुश्री सोनी श्रीवास्तव को मामले में सहायता के लिए ₹15,000 मानधन के रूप में भुगतान करे।
वकील उपस्थित रहे:
- याचिकाकर्ता की ओर से: श्री अजय कुमार सिंह, अधिवक्ता
- प्रतिवादी की ओर से: श्री उपेन्द्र कुमार, अधिवक्ता (पति की अनुपस्थिति में कोर्ट की सहायता की)
- एमिकस क्यूरी: सुश्री सोनी श्रीवास्तव, अधिवक्ता