बच्चे की कस्टडी तय करने में धर्म निर्णायक नहीं: बॉम्बे हाईकोर्ट ने पिता की हेबियस कॉर्पस याचिका खारिज की

बॉम्बे हाईकोर्ट की खंडपीठ, जिसमें जस्टिस सारंग वी. कोतवाल और जस्टिस एस.एम. मोडक शामिल थे, ने साहिल राजू गिलानी द्वारा अपनी नाबालिग पुत्री की कस्टडी मां से वापस पाने के लिए दायर की गई हेबियस कॉर्पस याचिका को खारिज कर दिया। अदालत ने स्पष्ट किया कि धर्म बच्चे की कस्टडी तय करने का निर्णायक कारक नहीं है, और बच्चे का सर्वोत्तम हित (welfare) ही सर्वोपरि है।

मामले की पृष्ठभूमि

याची साहिल राजू गिलानी ने अदालत का रुख किया और एक हेबियस कॉर्पस याचिका दायर की, यह आरोप लगाते हुए कि उनकी पत्नी (प्रतिवादी संख्या 2) ने उनकी तीन वर्षीय पुत्री को नई दिल्ली में अवैध रूप से रोक रखा है।

याची के अनुसार, बच्ची मुंबई में उसके साथ रह रही थी, मुंबई के स्कूल में दाखिल थी, और उसके सभी महत्वपूर्ण दस्तावेजों पर मुंबई का पता था। याची ने आरोप लगाया कि प्रतिवादी ने अपने पिता से मिलने के बहाने बच्ची को मुंबई से ले जाकर वापस नहीं लौटाया।

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याची ने यह भी कहा कि प्रतिवादी एक अमेरिकी नागरिक हैं, जिनका PIO कार्ड समाप्त हो चुका है और जिनके खिलाफ आव्रजन से जुड़े मामले लंबित हैं। उन्होंने प्रतिवादी की अस्थिर जीवनशैली और लगातार यात्रा करने की अनिवार्यता का भी उल्लेख किया।

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इस दौरान, मां ने नई दिल्ली के साकेत स्थित अतिरिक्त जिला न्यायाधीश के समक्ष बच्ची के पासपोर्ट और निवास को लेकर राहत मांगी थी। उन्हें एक एकतरफा निषेधाज्ञा (ex parte injunction) मिली थी, जिसे बाद में दिल्ली हाईकोर्ट ने स्थगित कर दिया। इसके अलावा, मां ने गार्जियन्स एंड वार्ड्स एक्ट, 1890 की धारा 7, 10 और 13 के तहत साकेत की फैमिली कोर्ट में एक याचिका भी दायर की।

पक्षकारों की दलीलें

याची की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता आबाद पोंडा ने दलील दी कि मोहम्मडन लॉ के अंतर्गत, विशेष रूप से धारा 352 और 354 के तहत, यदि मां विवाह के दौरान पिता के निवास स्थान से दूर रहती है, तो उसका कस्टडी अधिकार समाप्त हो सकता है।

उन्होंने निम्नलिखित निर्णयों का हवाला दिया:

  • अथर हुसैन बनाम सैयद सिराज अहमद और अन्य [(2010) 2 SCC 654]
  • गौहर बेगम बनाम सुगी उर्फ नजमा बेगम और अन्य [AIR 1960 SC 93]
  • यशिता साहू बनाम राजस्थान राज्य [(2020) 3 SCC 67]

मां की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने प्रारंभिक आपत्ति उठाते हुए कहा कि जब बच्चा किसी प्राकृतिक संरक्षक के पास है, तो उसे अवैध हिरासत नहीं माना जा सकता। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि याची के पास गार्जियन्स एंड वार्ड्स एक्ट, 1890 के तहत एक वैकल्पिक उपाय उपलब्ध है।

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श्री साल्वे ने निम्नलिखित निर्णयों का उल्लेख किया:

  • नित्या आनंद राघवन बनाम राज्य (NCT दिल्ली) [(2017) 8 SCC 454]
  • राजेश्वरी चंद्रशेखर गणेश बनाम तमिलनाडु राज्य [(2023) 12 SCC 472]

उन्होंने यह भी ज़ोर दिया कि बच्चे का सर्वोत्तम हित ही सर्वोच्च प्राथमिकता है।

अदालत का विश्लेषण

अदालत ने अपने विश्लेषण में कहा कि:

  • जब कोई बच्चा प्राकृतिक संरक्षक के पास हो, तो उसकी कस्टडी को वैध माना जाएगा।
  • केवल असाधारण परिस्थितियों में ही कस्टडी में हस्तक्षेप किया जा सकता है।

गार्जियन्स एंड वार्ड्स एक्ट, 1890 की धारा 17 का उल्लेख करते हुए, अदालत ने कहा:

“अदालत को नाबालिग की आयु, लिंग और धर्म, प्रस्तावित संरक्षक के चरित्र और योग्यता तथा नाबालिग से उसके संबंध की निकटता को ध्यान में रखना चाहिए।”

लेकिन, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया:

“पक्षकार के धर्म को अदालत द्वारा बच्चे के कल्याण की दृष्टि से विचार करने के लिए एकमात्र विचार नहीं बनाया जा सकता। नाबालिग का धर्म केवल विचार के लिए एक कारक है, परंतु यह कोई निर्णायक अथवा सर्वोपरि कारक नहीं है। यह केवल कई कारकों में से एक है जिन्हें अदालत को यह तय करते समय देखना होता है कि नाबालिग के कल्याण के लिए क्या बेहतर है। हमारे मत में, तीन वर्षीय बच्ची के लिए उसकी मां की कस्टडी में रहना उसके कल्याण के लिए उचित होगा।”

अदालत ने यह भी पाया कि कोई ऐसा साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया था जिससे यह सिद्ध हो कि मां के पास बच्ची की कस्टडी होना उसके लिए हानिकारक है।

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याची द्वारा प्रतिवादी की जीवनशैली और यात्रा करने की अनिवार्यता के आधार पर अंतरिम चरण में कस्टडी बदलने की मांग भी खारिज कर दी गई।

निर्णय

अंततः, यह पाते हुए कि हेबियस कॉर्पस याचिका के माध्यम से कोई राहत नहीं दी जा सकती, अदालत ने याचिका को खारिज कर दिया।

हालांकि, अदालत ने पहले दी गई अंतरिम सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बच्ची को भारत से बाहर ले जाने पर रोक को आगे 60 दिनों तक बढ़ा दिया ताकि याची सक्षम फोरम में उचित राहत के लिए आवेदन कर सके।

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