सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में एक व्यक्ति के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि दहेज प्रताड़ना के अस्पष्ट और सामान्य आरोपों के आधार पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A के तहत मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस आर. महादेवन की बेंच ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें अपीलकर्ता के खिलाफ दर्ज FIR को खारिज करने से इनकार कर दिया गया था। कोर्ट ने माना कि ऐसे सामान्य आरोपों पर अभियोजन जारी रखना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एक वैवाहिक विवाद से जुड़ा है। शिकायतकर्ता का विवाह 1 मई 2014 को अपीलकर्ता के भाई से हुआ था। शादी के कुछ महीनों बाद, वैवाहिक कलह के कारण वह अपना ससुराल छोड़कर चली गई।
9 नवंबर 2023 को, शिकायतकर्ता ने मेरठ के सिविल लाइंस पुलिस स्टेशन में अपने पति, सास और जेठ (अपीलकर्ता) के खिलाफ FIR दर्ज कराई। इस FIR में IPC की धारा 323 (जानबूझकर चोट पहुँचाना) और 498A (पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता) के साथ-साथ दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 और 4 भी लगाई गई थी।

FIR में मुख्य रूप से तीन आरोप लगाए गए थे:
- शादी के दस दिनों के भीतर ही उसे दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाने लगा।
- अपीलकर्ता ने पति और सास के साथ मिलकर उससे एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करवाए, जिस पर उसके रिश्तेदारों ने भी हस्ताक्षर किए थे, ताकि उसे ससुराल में रहने दिया जाए।
- 10 दिसंबर 2022 को, दहेज से जुड़ी लगातार प्रताड़ना के कारण उसके मस्तिष्क की एक नस फट गई, जिससे उसके दाहिने हाथ और पैर में लकवा मार गया।
FIR रद्द करने से हाईकोर्ट का इनकार
इस FIR से व्यथित होकर, अपीलकर्ता ने अपनी मां और भाई के साथ इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक रिट याचिका दायर कर FIR को रद्द करने की मांग की। हालांकि, हाईकोर्ट ने 27 फरवरी 2024 के अपने आदेश में याचिका खारिज कर दी। हाईकोर्ट ने माना कि FIR को देखने पर प्रथम दृष्टया एक संज्ञेय अपराध का मामला बनता है। इस आदेश के बाद अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
सुप्रीम कोर्ट ने FIR में लगाए गए आरोपों की विस्तृत जांच की ताकि यह तय हो सके कि अपीलकर्ता के खिलाफ कोई मामला बनता है या नहीं। मुख्य सवाल यह था कि क्या हाईकोर्ट का आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने से इनकार करना सही था।
बेंच ने पाया कि आरोपों में कोई ठोस आधार नहीं था। फैसले में कहा गया है, “FIR को सरसरी तौर पर देखने से ही पता चलता है कि शिकायतकर्ता द्वारा लगाए गए आरोप अस्पष्ट और सामान्य प्रकृति के हैं। पति और उसके परिवार के साथ-साथ अपीलकर्ता पर दहेज की मांग को लेकर मानसिक रूप से प्रताड़ित करने का दावा करने के अलावा, शिकायतकर्ता ने किसी विशेष घटना का कोई विशिष्ट विवरण नहीं दिया है।”
कोर्ट ने पाया कि FIR में महत्वपूर्ण विवरणों का अभाव है। बेंच ने कहा, “शिकायतकर्ता ने यह भी नहीं बताया कि कथित प्रताड़ना कब, कहाँ, किस तारीख को और किस तरीके से हुई, या मांग की प्रकृति क्या थी। इसलिए, FIR में ठोस और सटीक आरोपों की कमी है।”
IPC की धारा 323 के आरोप के संबंध में, कोर्ट ने कथित प्रताड़ना और शिकायतकर्ता को हुई चोट के बीच कोई संबंध नहीं पाया। कोर्ट ने कहा, “अपीलकर्ता का कोई भी ऐसा कार्य या चूक दूरस्थ या निकटस्थ रूप से साबित नहीं होता है जो उसे IPC की धारा 319 के तहत परिभाषित चोट के अपराध में फंसाता हो।”
कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि धारा 498A के तहत “क्रूरता” को साबित करने के लिए विशिष्ट घटनाओं का उल्लेख आवश्यक है। कोर्ट ने टिप्पणी की, “किसी भी व्यक्ति के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही जारी रखने के लिए बिना किसी विशिष्ट विवरण के केवल प्रताड़ना के सामान्य आरोप पर्याप्त नहीं होंगे।”
सुप्रीम कोर्ट ने ‘हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल (1992)’ के अपने ऐतिहासिक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि यह मामला उस श्रेणी में आता है, जहां आरोप, “अगर उन्हें अंकित मूल्य पर लिया जाए और पूरी तरह से स्वीकार कर लिया जाए, तो भी वे प्रथम दृष्टया कोई अपराध नहीं बनाते हैं।”
बेंच ने ‘दारा लक्ष्मी नारायण बनाम बिहार राज्य’ के एक हालिया 2025 के फैसले का भी उल्लेख किया, जिसमें वैवाहिक विवादों में कानून के दुरुपयोग के प्रति आगाह किया गया था। कोर्ट ने कहा, “न्यायिक अनुभव से यह एक सुस्थापित तथ्य है कि जब वैवाहिक कलह से घरेलू विवाद उत्पन्न होते हैं, तो अक्सर पति के परिवार के सभी सदस्यों को फंसाने की प्रवृत्ति होती है। ठोस सबूतों या विशेष आरोपों के बिना ऐसे सामान्य और व्यापक आरोप आपराधिक अभियोजन का आधार नहीं बन सकते।”
कोर्ट ने धारा 498A के दुरुपयोग की बढ़ती प्रवृत्ति पर भी गौर किया और कहा कि “पत्नी द्वारा अपने पति और उसके परिवार के खिलाफ व्यक्तिगत प्रतिशोध लेने के लिए धारा 498A जैसे प्रावधानों का दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।”
अंतिम निर्णय
अपने विश्लेषण के आधार पर, सुप्रीम कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि “FIR से उत्पन्न होने वाले इस अभियोजन को जारी रखने की अनुमति देना न तो समीचीन है और न ही न्याय के हित में है।”
अपील स्वीकार कर ली गई और इलाहाबाद हाईकोर्ट के 27 फरवरी 2024 के आदेश को रद्द कर दिया गया। इसके परिणामस्वरूप, मेरठ के सिविल लाइंस पुलिस स्टेशन में दर्ज FIR और उससे उत्पन्न होने वाली सभी कार्यवाही को केवल अपीलकर्ता के संबंध में रद्द कर दिया गया। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि इस फैसले की टिप्पणियों का पक्षों के बीच लंबित किसी अन्य कार्यवाही पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, जिसका निर्णय कानून के अनुसार उनके अपने तथ्यों पर किया जाएगा।