एनआई अधिनियम के तहत डिपॉजिट की शर्त यांत्रिक रूप से नहीं लगाई जा सकती, उचित कारण आवश्यक: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि परक्राम्य लिखत अधिनियम (Negotiable Instruments Act – NI Act) की धारा 148 के तहत मुआवजे की राशि का 20% जमा करने की शर्त को यांत्रिक रूप से लागू नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिए तर्कसंगत आधार आवश्यक है। न्यायमूर्ति सौरभ बनर्जी ने अजय आहूजा द्वारा सुमित्रा मित्तल और राजेश मित्तल के खिलाफ दायर दो याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए रोहिणी अदालत के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (ASJ) के आदेशों को रद्द कर दिया, जिसमें आहूजा की अपील सुनने से पहले 20% जमा करने की शर्त लगाई गई थी।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला रियल एस्टेट व्यवसायी अजय आहूजा और प्रतिवादी सुमित्रा मित्तल एवं उनके पुत्र राजेश मित्तल के बीच हुए वित्तीय लेन-देन से जुड़ा था। मित्तल परिवार ने आहूजा को 53 लाख रुपये का ऋण दिया था, जिसके बदले आहूजा ने 25 लाख रुपये और 28 लाख रुपये के दो पोस्ट-डेटेड चेक जारी किए। जब ये चेक बैंक में प्रस्तुत किए गए, तो अपर्याप्त शेष राशि के कारण बाउंस हो गए, जिसके चलते मित्तल परिवार ने एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत कार्रवाई शुरू की।

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रोहिणी कोर्ट के मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने 1 जुलाई 2024 को आहूजा को धारा 138 और धारा 141 के तहत दोषी ठहराया और सजा सुनाई। इस फैसले को चुनौती देते हुए आहूजा ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (ASJ) के समक्ष अपील दायर की। हालांकि, ASJ ने उनकी अपील स्वीकार करते हुए 20% मुआवजा राशि जमा करने का निर्देश दिया। आहूजा ने इस शर्त में छूट की मांग की, जिसे 27 जनवरी 2025 को खारिज कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट का रुख किया।

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कानूनी मुद्दे और हाईकोर्ट की टिप्पणियां

हाईकोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी प्रश्न यह था कि क्या ASJ के पास 20% जमा करने की शर्त को अनिवार्य रूप से लगाने का अधिकार था, या क्या इसे न्यायिक विवेक के तहत उचित कारणों के साथ लागू किया जाना चाहिए?

आहूजा के वकील डॉ. अमित जॉर्ज ने तर्क दिया कि धारा 148 के तहत जमा की शर्त एक कठोर अनिवार्यता नहीं है, बल्कि यह न्यायालय के विवेकाधिकार पर निर्भर करती है, विशेष रूप से तब जब आरोपी वित्तीय कठिनाई का सामना कर रहा हो। उन्होंने कहा कि ASJ ने न्यायिक विवेक का सही इस्तेमाल नहीं किया और बिना किसी ठोस आधार के आहूजा की वित्तीय स्थिति को सक्षम मान लिया।

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वहीं, प्रतिवादियों के वकील एफ.के. झा ने तर्क दिया कि जमा की शर्त एक वैधानिक सुरक्षा उपाय है, जिससे शिकायतकर्ताओं को मुआवजा मिल सके। उन्होंने कहा कि आहूजा ने अपनी वित्तीय अक्षमता साबित नहीं की और न ही ASJ के पूर्व आदेशों को चुनौती दी।

न्यायमूर्ति बनर्जी ने धारा 148 का विश्लेषण करते हुए कहा कि यह प्रावधान अपीलीय न्यायालय को जमा का निर्देश देने का अधिकार देता है, लेकिन इसे अनिवार्य रूप से लागू करने की बाध्यता नहीं है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के सुरिंदर सिंह देसवाल बनाम वीरेन्द्र गांधी और जंबू भंडारी बनाम एम.पी. स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड जैसे मामलों का हवाला दिया, जहां यह स्पष्ट किया गया था कि यदि कोई न्यायालय धारा 148 के तहत जमा की शर्त लगाता है या उसे माफ करता है, तो उसे स्पष्ट कारण देने होंगे।

फैसले के प्रमुख अंश

न्यायमूर्ति बनर्जी ने अपने आदेश में कहा:

“किसी भी आरोपी को मुआवजा राशि का 20% जमा करने का आदेश देने में न्यायालय को उचित सोच-विचार करना चाहिए। यह आदेश यांत्रिक रूप से पारित नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि आरोपी की वित्तीय स्थिति, लेन-देन की प्रकृति और अपील के अधिकार को ध्यान में रखकर दिया जाना चाहिए।”

अदालत ने यह भी कहा:

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“अपीलीय न्यायालय को शिकायतकर्ता और आरोपी के अधिकारों के बीच संतुलन बनाना चाहिए। बिना वित्तीय स्थिति का आकलन किए किसी भी आरोपी पर आर्थिक बोझ डालना निष्पक्ष न्याय प्रक्रिया के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।”

फैसला

हाईकोर्ट ने ASJ के आदेशों को रद्द कर दिया और मामले को पुनर्विचार के लिए भेज दिया। अदालत ने निर्देश दिया कि अपीलीय न्यायालय को आहूजा की छूट संबंधी याचिका को कानूनी सिद्धांतों के अनुसार दोबारा विचार करना चाहिए। तब तक, 20% राशि जमा करने के आदेश पर रोक लगा दी गई है।

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