दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि एक ही अनादृत चेक (dishonoured cheque) से संबंधित सिविल मुकदमे की निष्पादन कार्यवाही (execution proceeding) में वसूली गई राशि को, उसी लेनदेन के लिए धारा 138 नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स (NI) एक्ट के तहत समानांतर आपराधिक कार्यवाही (parallel criminal proceeding) में लगाए गए मुआवजे (compensation) की राशि के खिलाफ समायोजित (adjusted) किया जा सकता है।
जस्टिस मनोज कुमार ओहरी ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 357(5) की “रिवर्स एनालॉजी” (reverse analogy) लागू करते हुए, अपीलकर्ता मोहम्मद उमर द्वारा दायर एक आवेदन को स्वीकार कर लिया। कोर्ट ने वसूली गई राशि को मुआवजे में समायोजित किया, अपीलकर्ता की ‘डिफ़ॉल्ट सज़ा’ (default sentence) को आनुपातिक रूप से (proportionally) कम कर दिया, और उसे तुरंत रिहा करने का आदेश दिया, यह पाते हुए कि वह पहले ही घटी हुई अवधि की सजा काट चुका था।
यह फैसला Crl.A. 90/2025 में पारित किया गया, जिसमें कड़कड़डूमा कोर्ट के विद्वान ASJ के 25.08.2022 के फैसले को चुनौती दी गई थी।
मामले की पृष्ठभूमि
ट्रायल कोर्ट ने 23.12.2020 के फैसले द्वारा अपीलकर्ता मोहम्मद उमर को धारा 138 एनआई एक्ट के तहत दोषी (convicted) ठहराया था। ट्रायल कोर्ट ने उसे 2 महीने के साधारण कारावास (simple imprisonment) की सजा सुनाई और 30 दिनों के भीतर 1,50,00,000 रुपये का मुआवजा देने का निर्देश दिया। भुगतान में चूक (default) होने पर, उसे 1 महीने का अतिरिक्त साधारण कारावास भुगतना था।
निजी प्रतिवादी (शिकायतकर्ता), असद रज़ा, “सजा की अपर्याप्तता” (inadequacy of sentence) से व्यथित होकर, इसे बढ़ाने की मांग की।
25.08.2022 के फैसले द्वारा, सेशंस कोर्ट ने अपराध के लिए मुख्य सजा (substantive sentence) को बढ़ाकर 1 साल का साधारण कारावास कर दिया। 1,50,00,000 रुपये की मुआवजा राशि की पुष्टि करते हुए, सेशंस कोर्ट ने भुगतान न करने पर ‘डिफ़ॉल्ट सज़ा’ को बढ़ाकर 6 महीने कर दिया।
अलग से, उसी ‘कॉज ऑफ एक्शन’ (cause of action) पर, प्रतिवादी ने एक सिविल मुकदमा (Civil Suit No. 10359/2016) दायर किया था, जो 27.04.2017 को उसके पक्ष में डिक्री (decreed) हुआ था। यह “निर्विवाद रूप से” (concededly) कहा गया कि इस सिविल मुकदमे की निष्पादन कार्यवाही में, प्रतिवादी ने 33,10,000 रुपये की राशि वसूल की थी।
हाईकोर्ट के समक्ष दलीलें
अपीलकर्ता की ओर से पेश श्री आलोक त्रिपाठी ने दलील दी कि अपीलकर्ता पहले ही 1 साल की पूरी मुख्य सजा काट चुका है, जो 26.05.2025 को समाप्त हो गई। उन्होंने कहा कि अपीलकर्ता अपनी अपील को ‘मेरिट’ (merits) पर नहीं दबाना चाहता।
हालांकि, अपीलकर्ता 1.5 करोड़ रुपये के मुआवजे का भुगतान न करने के कारण वर्तमान में 6 महीने की ‘डिफ़ॉल्ट सज़ा’ काट रहा था।
अपीलकर्ता के वकील ने प्रार्थना की कि सिविल कार्यवाही में प्रतिवादी द्वारा वसूले गए 33,10,000 रुपये को मुआवजा राशि में समायोजित किया जाए, क्योंकि दोनों कार्यवाहियां एक ही चेक राशि के संबंध में थीं। विवेक साहनी व अन्य बनाम कोटक महिंद्रा बैंक लिमिटेड मामले पर भरोसा करते हुए, यह तर्क दिया गया कि यदि राशि को समायोजित किया जाता है, तो अपीलकर्ता भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 69 के तहत रिहाई का हकदार होगा, जो जुर्माने के आनुपातिक हिस्से के भुगतान पर कारावास की समाप्ति का प्रावधान करता है।
प्रतिवादी के वकील श्री जितेंद्र बख्शी ने दलील दी कि अपील 879 दिनों की देरी से टाइम-बार्ड (time-barred) थी और तर्क दिया कि “अपीलकर्ता के आचरण के आलोक में, उसके पक्ष में किसी भी विवेकाधिकार (discretion) का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।”
कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
जस्टिस ओहरी ने समायोजन के लिए आवेदन (CRL.M.A. 28731/2025) पर ध्यान केंद्रित करते हुए, पहले CrPC की धारा 357(3) के तहत दिए गए मुआवजे के लिए ‘डिफ़ॉल्ट सज़ा’ लगाने की वैधता की पुष्टि की। फैसले में कहा गया कि धारा 357(3) को CrPC की धारा 431 (पैसे की वसूली जुर्माने के रूप में) और IPC की धारा 64 (जुर्माना न देने पर कारावास की सजा) के साथ पढ़ने से अदालत को ऐसा करने का अधिकार मिलता है।
कोर्ट ने विजयन बनाम सदानंदन के. व अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था: “CrPC की धारा 357(3) और 431 के प्रावधान, जब IPC की धारा 64 के साथ पढ़े जाते हैं, तो कोर्ट को मुआवजा देने का आदेश देते समय, भुगतान न होने की स्थिति में ‘डिफ़ॉल्ट सज़ा’ को भी शामिल करने का अधिकार देते हैं।”
इसके बाद कोर्ट ने समायोजन के मुख्य प्रश्न को संबोधित किया। इसने CrPC की धारा 357(5) का उल्लेख किया, जो यह कहती है कि बाद के किसी भी सिविल मुकदमे में अदालत, आपराधिक कार्यवाही में “भुगतान की गई या मुआवजे के रूप में वसूली गई किसी भी राशि को ध्यान में रखेगी”।
फैसले में विवेक साहनी (सुप्रा) मामले में पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले पर भी चर्चा की गई, जिसने डी. पुरुषोत्तमा रेड्डी व अन्य बनाम के. सतीश मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया था। विवेक साहनी फैसले को उद्धृत किया गया: “…इस कोर्ट का विचार है कि प्रत्येक मामले के तथ्य, विशेष रूप से जब चेक के तहत राशि और किसी अन्य प्रावधान के तहत वसूली की कार्यवाही समान और परस्पर जुड़ी हुई हो, तो कोर्ट समायोजन का आदेश देने के लिए अपनी शक्तियों के भीतर हैं।”
इस मिसाल (precedent) के आधार पर, हाईकोर्ट ने इसी सिद्धांत को उलट कर (in reverse) लागू करते हुए अपना मुख्य निष्कर्ष स्थापित किया:
“चूंकि CrPC की धारा 357(5) कोर्ट को आपराधिक कार्यवाही में भुगतान की गई या मुआवजे के रूप में प्राप्त किसी भी राशि को उसी मामले से संबंधित किसी भी बाद के सिविल मुकदमे में समायोजित करने की अनुमति देती है, इसलिए इसके ‘रिवर्स एनालॉजी’ को लागू करने में कोई रोक नहीं है, और एक सिविल मुकदमे में पहले प्राप्त किसी भी राशि को… बाद की आपराधिक कार्यवाही में समायोजित किया जा सकता है।”
कोर्ट ने माना: “यह कोर्ट निष्पादन कार्यवाही में प्रतिवादी द्वारा प्राप्त राशि, यानी 33,10,000 रुपये को 1.5 करोड़ रुपये की मुआवजा राशि में समायोजित करना उचित समझता है।”
अंतिम निर्णय
समायोजन का आदेश देने के बाद, कोर्ट ने IPC की धारा 69 लागू की। कोर्ट ने नोट किया कि अपीलकर्ता की 6 महीने की ‘डिफ़ॉल्ट सज़ा’ 26.11.2025 को समाप्त होने वाली थी।
कोर्ट ने गणना की कि प्रतिवादी द्वारा पहले ही वसूल की गई 33,10,000 रुपये की राशि “कुल मुआवजा राशि का लगभग 22 प्रतिशत” है। नतीजतन, फैसले में कहा गया, “‘डिफ़ॉल्ट सज़ा’ को भी समान अनुपात में, यानी लगभग 39 दिनों तक कम किया जाता है।”
समय-सीमा को देखते हुए, कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला, “चूंकि शेष सजा 39 दिनों से कम है, अपीलकर्ता पहले ही घटी हुई ‘डिफ़ॉल्ट सज़ा’ काट चुका है।”
आवेदन को स्वीकार करते हुए और अपील का निपटारा करते हुए, हाईकोर्ट ने आदेश दिया: “परिणामस्वरूप, अपीलकर्ता को निर्देश दिया जाता है कि यदि किसी अन्य मामले में आवश्यक न हो, तो उसे तुरंत रिहा किया जाए।” फैसले की एक प्रति ट्रायल कोर्ट और जेल अधीक्षक को भेजने का निर्देश दिया गया।

                                    
 
        


