“सहमति दर्शाने के लिए पीड़ित के चरित्र को ‘हथियार’ नहीं बनाया जा सकता,” : दिल्ली हाईकोर्ट ने ‘अविश्वसनीयता’ के आधार पर FIR रद्द की

दिल्ली हाईकोर्ट ने 3 नवंबर, 2025 के एक महत्वपूर्ण फैसले में, बलात्कार और नशीला पदार्थ खिलाने (आईपीसी धारा 376/328) के आरोप में दर्ज एक FIR को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने माना कि शिकायतकर्ता के आरोप “घोर विरोधाभासों से भरे” (riddled with flagrant inconsistencies) थे और उनके पास पुख्ता सबूतों का अभाव था।

जस्टिस अमित महाजन ने याचिका (CRL.M.C. 483/2020) की अध्यक्षता करते हुए यह फैसला सुनाया कि आधी दशक से लंबित इस आपराधिक कार्यवाही को जारी रखना “कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग” (abuse of process of law) और “न्याय का हनन” (miscarriage of justice) होगा।

मामले की पृष्ठभूमि

इस याचिका में 31 अक्टूबर, 2018 को पुलिस स्टेशन फतेहपुर बेरी में दर्ज FIR नंबर 460/2018 को रद्द करने की मांग की गई थी।

Video thumbnail

अभियोजन पक्ष के अनुसार, शिकायतकर्ता (प्रतिवादी नंबर 2) ने आरोप लगाया कि वह मई 2018 में याचिकाकर्ता से मिली थी। उसने दावा किया कि जून 2018 में, याचिकाकर्ता ने जबरन शारीरिक संबंध बनाए और बाद में शादी का झांसा देकर यौन संबंध बनाना जारी रखा, यहाँ तक कि वह उसके घर भी रहने लगा। यह भी आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ता ने उसकी पूरी तनख्वाह, लगभग 8 लाख रुपये ले लिए, और 10 लाख रुपये की और मांग की, साथ ही उसके फोटो और वीडियो वायरल करने की धमकी दी।

CrPC की धारा 164 के तहत दर्ज अपने बयान में, शिकायतकर्ता ने कहा कि वह याचिकाकर्ता से एक क्लब में मिली थी, जहाँ उसने बात करने के लिए उसे पैसे ऑफर किए। उसने आरोप लगाया कि एक मौके पर, याचिकाकर्ता ने उसे जबरन कोल्ड ड्रिंक पिलाई, जिसके बाद उसे चक्कर आने लगे, और फिर वह “उसे (शिकायतकर्ता को) उसके कमरे में ले गया और उसके साथ बलात्कार किया।” उसने अप्राकृतिक यौन संबंध के भी आरोप लगाए। शुरुआत में धारा 376/328/506 के तहत आरोप पत्र दायर किया गया था, और बाद में एक पूरक आरोप पत्र के माध्यम से आईपीसी की धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) भी जोड़ी गई।

READ ALSO  उत्तर प्रदेश धर्म परिवर्तन कानून: सुप्रीम कोर्ट 2024 संशोधन को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई को तैयार

पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि FIR “दुर्भावनापूर्ण इरादे” (mala fide motive) से दर्ज की गई थी और याचिकाकर्ता “हनी ट्रैप का शिकार” (fallen prey to a honey trap) हुआ था। यह दलील दी गई कि याचिकाकर्ता एक शादीशुदा व्यक्ति है और उसके दो बच्चे हैं, यह तथ्य शिकायतकर्ता को पता था, जिससे शादी का वादा करना असंभव हो जाता है। याचिकाकर्ता के वकील ने यह भी कहा कि शिकायतकर्ता को “झूठे आरोप लगाने की आदत” (tendency to level false allegations) है, जिसका जिक्र करते हुए उन पिछले बलात्कार मामलों का हवाला दिया गया जिनमें बरी होने का फैसला आया था।

शिकायतकर्ता (प्रतिवादी नंबर 2) के वकील ने दलील दी कि FIR और आरोप पत्र में संज्ञेय अपराधों का खुलासा होता है। यह तर्क दिया गया कि शिकायतकर्ता की वैवाहिक स्थिति के बारे में याचिकाकर्ता के तर्क गलत और भ्रामक थे। वकील ने यह भी कहा कि संबंध सहमति से थे या नहीं, यह “ट्रायल का विषय” (matter of trial) है और शिकायतकर्ता के चरित्र के खिलाफ “निंदनीय आरोप” (scandalous allegations) मामले में अप्रासंगिक हैं।

हाईकोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ

जस्टिस महाजन ने विश्लेषण की शुरुआत करते हुए कहा कि CrPC की धारा 482 के तहत कार्यवाही को रद्द करने की शक्ति का प्रयोग सावधानी से किया जाना चाहिए, लेकिन इसका इस्तेमाल तब किया जा सकता है “अगर यह पाया जाता है कि आपराधिक कार्यवाही को जारी रखना कानूनी प्रक्रिया का स्पष्ट दुरुपयोग होगा,” (if it is found that the continuance of criminal proceedings would be a clear abuse of process of law)।

कोर्ट ने कहा कि यौन हमलों के मामलों में, अभियोक्त्री (prosecutrix) के बयान का “उच्च महत्व” (higher significance) होता है, लेकिन यह “ब्रह्मवाक्य” (gospel truth) नहीं है, और यदि बयान “पूरी तरह विश्वसनीय” (wholly reliable) नहीं है तो उसकी पुष्टि (corroboration) की जा सकती है।

याचिकाकर्ता द्वारा शिकायतकर्ता के चरित्र पर उठाए गए सवालों पर, कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की: “एक पीड़ित का चरित्र, चाहे वह कितना भी कलंकित क्यों न हो, उसकी सहमति को दर्शाने के लिए एक हथियार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। यहां तक कि पैसों के लिए साथ देने वाली एक इच्छुक साथी भी बलात्कार की शिकार हो सकती है।” (The character of a victim, no matter how blemished, cannot be weaponised against her to imply consent. Even a willing companion who accompanies a client in lieu of some consideration can be the victim of rape.)

हालांकि, कोर्ट ने पाया कि वह “आरोपों की अविश्वसनीयता के साथ-साथ शिकायतकर्ता के बयानों में स्पष्ट विसंगतियों को नजरअंदाज नहीं कर सकती।” (cannot remain blind to the implausibility of the allegations as well as the manifest discrepancies in the versions of Respondent No.2.)

READ ALSO  एचएम अमित शाह का छेड़छाड़ किया गया वीडियो: कोर्ट ने अरुण रेड्डी को 3 दिन की पुलिस हिरासत में भेजा

अदालत ने कई “घोर विरोधाभासों” को उजागर किया:

  • टाइमलाइन में विसंगति: FIR और धारा 164 के बयान में दावा किया गया कि वे 2018 में मिले थे, लेकिन MLC (मेडिको-लीगल केस) में दर्ज किया गया कि वह याचिकाकर्ता को “ढाई साल” (two and a half years) से जानती थी।
  • पहली घटना की तारीख: धारा 164 के बयान में पहली बलात्कार की घटना जून 2018 बताई गई, जबकि आरोप पत्र में यह “मार्च, 2018” (March, 2018) बताई गई। कोर्ट ने कहा कि इससे “पूरी टाइमलाइन ही बिगड़ जाती है।” (skews the entire timeline.)
  • सबूतों का अभाव: शुरुआती शिकायत में कोल्ड ड्रिंक में नशीला पदार्थ मिलाने का आरोप नहीं था, और कोई स्वतंत्र गवाह नहीं मिला। इसी तरह, धारा 377 के आरोप के लिए, शिकायतकर्ता ने “विभिन्न” (various) अस्पतालों में इलाज का दावा किया, लेकिन किसी का नाम नहीं बताया, और “इस संबंध में कोई पुख्ता सबूत सामने नहीं आया।” (no corroborative evidence has been forthcoming.)
  • कोई सामग्री नहीं: कोर्ट ने कहा, “शिकायतकर्ता के बयान के अलावा, ब्लैकमेल को दर्शाने वाले फोटो, वीडियो या बातचीत जैसी कोई पुख्ता सामग्री नहीं मिली, जिससे प्रथम दृष्टया मामला बनता हो।”

याचिकाकर्ता की वैवाहिक स्थिति के बारे में, कोर्ट ने इसे “असंभव” (improbable) माना कि शिकायतकर्ता याचिकाकर्ता की शादी की स्थिति से अनजान थी, खासकर जब शिकायतकर्ता के अनुसार, वे कुछ समय तक साथ रहे थे। कोर्ट ने यह भी “अजीब” (peculiar) पाया कि शिकायतकर्ता ने याचिकाकर्ता के परिवार के साथ अच्छे संबंध होने का दावा किया, लेकिन उसके बयान परिवार के सदस्यों की पहचान के बारे में “विवरण से पूरी तरह रहित” (abysmally bereft of particulars) थे।

READ ALSO  NGT के पास प्रथम दृष्टया किसी तरह का कानून निरस्त करने का अधिकार नही:सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट के महेश दामू खारे बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले का हवाला देते हुए, हाईकोर्ट ने कहा कि लंबे समय तक चला शारीरिक संबंध “शादी के झूठे वादे पर आधारित संबंध के बजाय सहमति वाले संबंध का संकेत” (indicative of a consensual relationship rather than a relationship based on false promise of marriage) देता है।

विश्लेषण का समापन करते हुए, कोर्ट ने पाया कि शिकायतकर्ता के बयान “मामले की जड़ तक जाने वाले घोर विरोधाभासों से भरे” (riddled with flagrant inconsistencies that go to root of the matter) और “किसी भी पुख्ता सबूत के अभाव में कमजोर” (rendered brittle due to absence of any cogent corroborating evidence) थे।

निर्णय

यह मानते हुए कि “परिस्थितियों की समग्रता” (totality of the circumstances) “आरोपी याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप तय करने के लिए गंभीर संदेह पैदा नहीं करती,” (did not give rise to grave suspicion against the accused petitioner for framing of charges) कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता को मुकदमे का सामना करने के लिए मजबूर करना “न्याय का हनन” (miscarriage of justice) होगा।

अदालत ने फैसला सुनाया: “उपरोक्त के मद्देनजर, FIR नंबर 460/2018, और उससे उत्पन्न होने वाली सभी परिणामी कार्यवाहियों को रद्द किया जाता है।” (In view of the above, FIR No. 460/2018, including all consequential proceedings arising therefrom, is quashed.)

Law Trend
Law Trendhttps://lawtrend.in/
Legal News Website Providing Latest Judgments of Supreme Court and High Court

Related Articles

Latest Articles