किरायेदार का ‘महज़ दावा’ बचाव का आधार नहीं, ‘वास्तविक आवश्यकता’ को गलत साबित करने का ‘भारी दायित्व’ किरायेदार पर: दिल्ली हाईकोर्ट ने बेदखली का आदेश दिया

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में, किराये के मामलों में ‘लीव टू डिफेंड’ (बचाव का अधिकार) देने वाले रेंट कंट्रोलर के आदेश को रद्द कर दिया है। न्यायमूर्ति सौरभ बनर्जी ने 11 नवंबर, 2025 को सुनाए गए एक फैसले में कहा कि किरायेदार, मकान मालिक की वास्तविक आवश्यकता के दावे को खारिज करने के लिए कोई भी विचारणीय मुद्दा (Triable Issue) उठाने में विफल रहा। इसके परिणामस्वरूप, कोर्ट ने दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1958 (DRC Act) के तहत बेदखली का आदेश पारित कर दिया।

यह कानूनी मुद्दा एक मकान मालिक द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिका (Revision Petition) पर हाईकोर्ट के समक्ष था, जिसमें 24 मई, 2024 के रेंट कंट्रोलर (ARC) के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसने किरायेदार को बेदखली के मुकदमे में बचाव करने की अनुमति दी थी।

मामले की पृष्ठभूमि

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याचिकाकर्ता, श्री हेमंत गुप्ता (मकान मालिक), ने दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1958 की धारा 14(1)(e) और धारा 25B के तहत एक बेदखली याचिका दायर की थी। यह याचिका कड़कड़डूमा कोर्ट, शाहदरा के समक्ष दायर की गई थी, जिसमें शाहदरा, बाबरपुर मेन रोड स्थित दुकान नंबर 2 को खाली कराने की मांग की गई थी।

मकान मालिक, जिन्होंने 2006 में एक पंजीकृत सेल डीड के माध्यम से संपत्ति खरीदी थी, ने अपनी “वास्तविक आवश्यकता” (bona fide requirement) का दावा किया। याचिका में कहा गया था कि उनके “बेरोजगार विवाहित बेटे, यशस्वी, को स्वतंत्र रूप से अपनी आजीविका कमाने के लिए एक जनरल स्टोर खोलने” के लिए उक्त दुकान की आवश्यकता थी।

इसके जवाब में, किरायेदार श्री ईश्वर चंद ने DRC अधिनियम की धारा 25B(4) और (5) के तहत ‘लीव टू डिफेंड’ के लिए एक आवेदन दायर किया। किरायेदार ने तीन मुख्य आधारों पर याचिका का विरोध किया: (i) उस क्षेत्र में DRC अधिनियम लागू नहीं होता, (ii) मकान मालिक की कोई वास्तविक आवश्यकता नहीं थी क्योंकि उनका बेटा पहले से ही कार्यरत था, और (iii) मकान मालिक के पास अन्य पर्याप्त वैकल्पिक संपत्तियां उपलब्ध थीं।

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विद्वान ARC ने 24 मई, 2024 के अपने आदेश द्वारा किरायेदार के आवेदन को स्वीकार कर लिया। ARC ने माना कि मकान मालिक “……अपनी वास्तविक आवश्यकता के संबंध में प्रथम दृष्टया मामला बनाने में विफल रहे…” और यह कि “……ट्रायल में यह भी साबित करना होगा कि बाबरपुर का क्षेत्र DRC अधिनियम के अंतर्गत आता है या नहीं।” इसी आदेश से व्यथित होकर मकान मालिक ने हाईकोर्ट में वर्तमान पुनरीक्षण याचिका दायर की।

हाईकोर्ट के समक्ष दलीलें

याचिकाकर्ता-मकान मालिक के वकील श्री वी.के. शर्मा ने तर्क दिया कि विवाहित बेटे के लिए आवश्यकता वास्तविक थी और उक्त दुकान ही “एकमात्र उपयुक्त व्यावसायिक संपत्ति” थी। उन्होंने यह भी दलील दी कि बाबरपुर गांव, मौजपुर के राजस्व एस्टेट का हिस्सा है, जिसे दिल्ली नगर निगम अधिनियम, 1957 की धारा 507 के तहत एक अधिसूचना द्वारा शहरीकृत किया जा चुका है।

प्रतिवादी-किरायेदार के वकील श्री अशोक कुमार आर्य ने ‘लीव टू डिफेंड’ की अनुमति देने वाले आदेश के खिलाफ पुनरीक्षण याचिका की पोषणीयता (maintainability) पर ही आपत्ति जताई। उन्होंने तर्क दिया कि किरायेदार ने तस्वीरों के समर्थन से एक महत्वपूर्ण विचारणीय मुद्दा उठाया था, जो दर्शाता था कि मकान मालिक का बेटा “पहले से ही लाभप्रद रूप से नियोजित था क्योंकि वह M/s आकांक्षा जेनरेटर्स के नाम से पानी फिल्टर और इन्वर्टर बैटरी का शोरूम/दुकान चला रहा था।”

हाईकोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष

हाईकोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद मामले का विस्तृत विश्लेषण किया।

  • पोषणीयता पर: कोर्ट ने किरायेदार की प्रारंभिक आपत्ति को खारिज कर दिया और आर.एस. बख्शी बनाम एच.के. मल्हारी एवं संजय मेहरा बनाम सुनील मल्होत्रा जैसे कई फैसलों का हवाला देते हुए पुनरीक्षण याचिका को पोषणीय माना।
  • वास्तविक आवश्यकता पर: कोर्ट ने पाया कि किरायेदार का यह दावा कि मकान मालिक का बेटा नियोजित है, किसी भी “विश्वसनीय और/या ठोस/सरकारी दस्तावेजी सबूत” से रहित था। कोर्ट ने किरायेदार द्वारा पेश की गई तस्वीरों और प्रोसेस सर्वर की रिपोर्ट को एक विचारणीय मुद्दा स्थापित करने के लिए अपर्याप्त पाया।
    न्यायमूर्ति बनर्जी ने टिप्पणी की, “उपरोक्त को यदि सही मान भी लिया जाए, तो भी यह अधिक से अधिक यही दर्शाता है कि बेरोजगार बेटा दुकान पर अपने पिता की सहायता/मदद कर रहा था। यह मकान मालिक को बेदखली की मांग करने से रोकने का आधार नहीं हो सकता…”
    इस निष्कर्ष को मकान मालिक द्वारा (एक अदालती आदेश के अनुपालन में) दायर किए गए GST पंजीकरण प्रमाण पत्र से निर्णायक बल मिला, जिसमें “स्पष्ट रूप से यह दर्शाया गया था कि उक्त M/s आकांक्षा जेनरेटर्स के प्रोपराइटर/मालिक वह (मकान मालिक) थे, न कि उनके बेटे।”
    कोर्ट ने माना, “इसलिए, मकान मालिक की वास्तविक आवश्यकता न होने के एकमात्र आधार पर किरायेदार द्वारा स्थापित किया गया पूरा मामला औंधे मुंह गिर जाता है…”
    कोर्ट ने बलदेव सिंह बाजवा बनाम मोनीश सैनी (2005) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि “मकान मालिक की आवश्यकता वास्तविक नहीं है, यह साबित करने का भारी दायित्व (heavy burden) किरायेदार पर होगा।” कोर्ट ने आबिद-उल-इस्लाम बनाम इंदर सैन दुआ (2022) का भी जिक्र किया, जिसके अनुसार “लीव टू डिफेंड के लिए महज एक दावा (mere assertion) ही पर्याप्त नहीं होगा।”
  • DRC अधिनियम की प्रयोज्यता पर: कोर्ट ने पाया कि ARC ने इस मुद्दे को विचारणीय मानकर गलती की। कोर्ट ने कहा कि मकान मालिक की सेल डीड में संपत्ति “ग्राम मौजपुर, आबादी बाबरपुर, इलाका शाहदरा, दिल्ली” में स्थित दर्ज है। इसके अलावा, PIO, SDM, शाहदरा से प्राप्त एक जवाब ने पुष्टि की कि “ग्राम मौजपुर” DMC अधिनियम की धारा 507 के तहत शहरीकृत गांवों की सूची में शामिल है। कोर्ट ने कहा, “दिलचस्प बात यह है कि इस सूची पर किरायेदार ने कभी कोई विवाद नहीं किया।”
  • वैकल्पिक आवास पर: हाईकोर्ट ने इस बिंदु पर ARC के निष्कर्ष से सहमति व्यक्त की कि “…प्रतिवादी द्वारा ऐसा कोई भी सबूत पेश नहीं किया गया है जो याचिकाकर्ता के बेटे के उपयोग के लिए किसी अन्य उचित रूप से उपयुक्त आवास की उपलब्धता को दर्शाता हो…”
  • पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार पर: कोर्ट ने हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम दिलबहार सिंह (2014) का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि यद्यपि धारा 25B(8) के तहत उसकी शक्ति अपीलीय नहीं है, लेकिन “मनमानी, विकृति, अवैधता, या अनुचितता” जैसी “स्पष्ट त्रुटियां” पाए जाने पर अपने पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार का उपयोग करना कोर्ट का “परम कर्तव्य” बन जाता है।
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अंतिम निर्णय

अपने विश्लेषण का समापन करते हुए, हाईकोर्ट ने माना, “इस कोर्ट की राय है कि विद्वान ARC द्वारा पारित 24.05.2024 के आदेश में एक स्पष्ट त्रुटि है, खासकर इसलिए क्योंकि प्रतिवादी ‘लीव टू डिफेंड’ दिए जाने को उचित ठहराने के लिए ARC के समक्ष कोई भी विचारणीय मुद्दा उठाने में असमर्थ रहा।”

तदनुसार, हाईकोर्ट ने ARC के आदेश को रद्द कर दिया और मकान मालिक के पक्ष में बेदखली का आदेश पारित किया। हालांकि, कोर्ट ने DRC अधिनियम की धारा 14(7) के मद्देनजर यह निर्देश दिया कि “कब्जे की वसूली का यह आदेश आज से छह महीने की अवधि समाप्त होने से पहले निष्पादित नहीं किया जाएगा।”

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