दिल्ली हाईकोर्ट ने ‘शत्रु संपत्ति’ पर कस्टोडियन के अधिकार को बरकरार रखा, 15 साल की देरी से दायर याचिका खारिज

दिल्ली हाईकोर्ट ने पुरानी दिल्ली स्थित एक संपत्ति को ‘शत्रु संपत्ति’ (Enemy Property) मानते हुए भारत के शत्रु संपत्ति कस्टोडियन (CEPI) में निहित करने के आदेश को सही ठहराया है। कोर्ट ने 15 साल की देरी से दायर उस रिट याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें संपत्ति के कस्टोडियन में निहित होने को चुनौती दी गई थी।

चीफ जस्टिस देवेंद्र कुमार उपाध्याय और जस्टिस तुषार राव गेडेला की खंडपीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता यह साबित करने में विफल रहे कि संपत्ति का मूल मालिक 1964 के बाद भी भारतीय नागरिक था। कोर्ट ने यह भी कहा कि इस चुनौती में “अस्पष्टीकृत देरी और ढिलाई” (unexplained delay and latches) है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह विवाद दिल्ली के चूरीवालान, चितला गेट स्थित ‘चट्टा हाजी मोहम्मद यूसुफ’ की संपत्ति संख्या 481 से संबंधित है। मूल रूप से इस संपत्ति के मालिक शेख बरकतुल्लाह थे, जिन्होंने 13 दिसंबर 1961 को एक पंजीकृत बिक्री विलेख (Sale Deed) के माध्यम से इसे हाजी मोहम्मद मुस्लिम को बेच दिया था।

प्रतिवादियों के अनुसार, हाजी मोहम्मद मुस्लिम 1964 में पाकिस्तान चले गए और वहां की नागरिकता ले ली। इसके परिणामस्वरूप, भारत सरकार द्वारा 10 सितंबर 1965 को डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स, 1962 के नियम 133-V(1) के तहत जारी अधिसूचना के बाद, पाकिस्तानी नागरिकों के स्वामित्व वाली सभी अचल संपत्तियां कस्टोडियन में निहित हो गईं।

याचिकाकर्ताओं का दावा था कि वे 1960 के दशक की शुरुआत से इस संपत्ति में किराएदार के रूप में रह रहे थे। उनका तर्क था कि हाजी मोहम्मद मुस्लिम ने 20 जून 1968 को श्रीमती कौसर जमाल के पक्ष में एक बिक्री विलेख निष्पादित किया था। इसके बाद संपत्ति कई हाथों में गई और अंततः 1995 में सलाहुद्दीन नामक व्यक्ति को बेची गई, जिनके साथ याचिकाकर्ताओं ने निर्माण अधिकारों के लिए समझौता किया था।

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वर्ष 1999 में, कस्टोडियन को कराची, पाकिस्तान से मोहम्मद मंजर का एक हलफनामा प्राप्त हुआ, जिसने खुद को हाजी मोहम्मद मुस्लिम का बेटा बताया। हलफनामे में कहा गया कि उनके पिता 1964 से 1991 में अपनी मृत्यु तक पाकिस्तान में रहे और कभी भारत नहीं आए। इस जानकारी और एक शिकायत के आधार पर, कस्टोडियन ने 1 जुलाई 1999 को ‘वेस्टिंग ऑर्डर’ (Vesting Order) जारी किया।

इसके बाद, 22 अक्टूबर 2010 को कस्टोडियन ने शत्रु संपत्ति अधिनियम, 1968 की धारा 5 और धारा 24 के तहत एक आदेश पारित किया, जिसमें घोषित किया गया कि संपत्ति कस्टोडियन में निहित रहेगी। याचिकाकर्ताओं ने इस आदेश और गृह मंत्रालय द्वारा 4 सितंबर 2025 को उनके अभ्यावेदन (representation) को खारिज किए जाने को चुनौती दी थी।

पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि लंबे समय से कब्जे के कारण उन्होंने संपत्ति पर अपना अधिकार पक्का कर लिया है। उनका कहना था कि कस्टोडियन और भारत सरकार ने 1968 के बिक्री विलेख और बाद के दस्तावेजों को गलत तरीके से नजरअंदाज किया और केवल पाकिस्तान से आए एक “अस्वीकार्य हलफनामे” पर भरोसा किया।

याचिकाकर्ताओं ने डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स, 1962 के नियम 133 (I)(1) और 133 (R) तथा डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स, 1971 के नियम 130 और 147 की संवैधानिक वैधता को भी चुनौती दी।

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इसके विपरीत, प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि मालिक के प्रवास के कारण 1965 में कानून के संचालन से संपत्ति कस्टोडियन में निहित हो गई थी। उन्होंने जोर देकर कहा कि याचिकाकर्ताओं ने 2010 के आदेश को 15 वर्षों तक चुनौती नहीं दी। प्रतिवादियों ने क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय की रिपोर्ट का हवाला दिया, जिसमें हाजी मोहम्मद मुस्लिम को कोई भारतीय पासपोर्ट जारी होने का रिकॉर्ड नहीं मिला था।

कोर्ट का विश्लेषण

हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के इस दावे को खारिज कर दिया कि संपत्ति वैध रूप से विभिन्न बिक्री विलेखों के माध्यम से हस्तांतरित हुई थी। पीठ ने पाया कि कस्टोडियन ने 2010 का आदेश क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय के सत्यापन सहित प्रासंगिक सामग्री के आधार पर पारित किया था।

नागरिकता के सबूत पर

कोर्ट ने टिप्पणी की:

“कस्टोडियन ने स्पष्ट रूप से यह निष्कर्ष दर्ज किया है कि रिकॉर्ड पर ऐसी कोई सामग्री नहीं है जो यह स्थापित करे कि हाजी मोहम्मद मुस्लिम ने पाकिस्तान प्रवास के बाद कभी भी भारतीय पासपोर्ट धारण किया हो।”

पीठ ने क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय, दिल्ली के उस पत्र पर भरोसा जताया, जिसमें कहा गया था कि हाजी मोहम्मद मुस्लिम को कोई पासपोर्ट जारी नहीं किया गया था।

देरी और ढिलाई पर

कोर्ट ने याचिका दायर करने में हुई देरी पर कड़ी आपत्ति जताई। फैसले में कहा गया:

“यह लंबी और अत्यधिक देरी अस्पष्टीकृत बनी हुई है, क्योंकि 15 साल के लंबे अंतराल के बाद शत्रु संपत्ति अधिनियम, 1968 की धारा 18 के तहत उपाय का सहारा लेने के लिए कोई ठोस कारण सामने नहीं आया है।”

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सबूत का भार (Burden of Proof)

सरकार द्वारा याचिकाकर्ताओं के अभ्यावेदन को खारिज करने के निर्णय को सही ठहराते हुए, कोर्ट ने कहा कि संपत्ति के निहित होने की धारणा (presumption) को गलत साबित करने का भार दावेदार पर होता है। कोर्ट ने कहा:

“याचिकाकर्ता यह स्थापित करने के अपने दायित्व को निभाने में पूरी तरह विफल रहे हैं कि विषय संपत्ति कस्टोडियन में निहित नहीं हुई थी।”

नियमों की वैधता पर

डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स को चुनौती देने के संबंध में, कोर्ट ने कहा कि नियम 133 (I)(1) केवल “शत्रु विषय” (enemy subject) को परिभाषित करता है और यह किसी भी संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन नहीं करता है। इसी तरह, कोर्ट ने नियम 133 (R) को चुनौती को “पूरी तरह से अप्रासंगिक” पाया, क्योंकि इस मामले में उस नियम के तहत कोई विशिष्ट घोषणा नहीं की गई थी।

निर्णय

दिल्ली हाईकोर्ट ने 22 अक्टूबर 2010 के कस्टोडियन के आदेश और 4 सितंबर 2025 के गृह मंत्रालय के आदेश को बरकरार रखते हुए रिट याचिका खारिज कर दी।

कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला:

“हमें रिट याचिका में कोई दम नहीं दिखता, जिसे एतद्द्वारा खारिज किया जाता है।”

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