दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि राज्य का कर्तव्य नागरिकों के नागरिक अधिकारों की रक्षा करना है, न कि उनका अतिक्रमण करना। अदालत ने कहा कि संपत्ति का अधिकार भले ही अब मौलिक अधिकार न रह गया हो, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 300A के तहत यह अब भी एक महत्वपूर्ण संवैधानिक और वैधानिक अधिकार है।
न्यायमूर्ति पुरुषेन्द्र कुमार कौरव ने 2 मई को दिए आदेश में कहा, “राज्य एक संवैधानिक प्राधिकारी और जन विश्वास का संरक्षक होने के नाते नागरिकों के नागरिक अधिकारों, विशेष रूप से संपत्ति के अधिकार की रक्षा करने का कर्तव्य निभाता है। राज्य की शक्तियाँ पूर्ण नहीं हैं, बल्कि संविधान और कानून द्वारा सीमित हैं।”
यह टिप्पणी उस मुकदमे में आई जिसमें आपातकाल के दौरान जारी एक निरस्त डिटेंशन आदेश के आधार पर ‘स्मगलर्स एंड फॉरेन एक्सचेंज मैनिपुलेटर्स (फॉरफीचर ऑफ प्रॉपर्टी) एक्ट, 1976’ (SAFEMA) के तहत अंसल भवन, कस्तूरबा गांधी मार्ग स्थित एक फ्लैट को जब्त कर लिया गया था। याचिकाकर्ताओं ने खुद को फ्लैट का वैध स्वामी बताते हुए कहा कि आपातकाल के समय से उनके संपत्ति अधिकारों का लगातार उल्लंघन किया गया।

जबकि आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले डाइरेक्टोरेट ऑफ एस्टेट्स ने दावा किया कि यह संपत्ति उन्हें पट्टे पर दी गई थी और 1998 में SAFEMA के तहत केंद्र सरकार द्वारा जब्त कर ली गई थी। यह जब्ती मार्च 2016 तक लागू रही, जब SAFEMA की कार्यवाही बंद कर दी गई।
अदालत ने 1999 से 2020 तक की अवधि के लिए कब्जे को अवैध ठहराया और याचिकाकर्ताओं को बाजार दर के आधार पर ₹1.76 करोड़ से अधिक की मेसन प्रॉफिट्स (मुआवजा) और ब्याज देने का आदेश दिया।
न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में राज्य की कार्यवाही की “कड़ी जांच” आवश्यक है और जो भी कार्यवाही नागरिक की संपत्ति छीनने का प्रयास करती है, वह केवल उचित प्रक्रिया और वैध कानून की अनुपस्थिति में अनुच्छेद 300A का उल्लंघन मानी जाएगी और उसे शुरू से ही शून्य माना जाएगा।
अदालत ने कहा, “राज्य को न केवल कानून के अक्षर का पालन करना चाहिए, बल्कि ऐसा आचरण करना चाहिए जो न्यायपूर्ण, निष्पक्ष और विवेकपूर्ण हो। यदि अधिकारों का रक्षक ही उनका उल्लंघन करने लगे, तो विधि का शासन ही खतरे में पड़ जाता है।”