दिल्ली हाईकोर्ट ने आपराधिक मामलों में राज्य सरकार द्वारा अपीलों में लगातार हो रही देरी पर गहरी नाराज़गी जताई है और स्पष्ट कहा है कि प्रशासनिक अड़चनों का हवाला देकर प्रक्रियागत चूकों को माफ़ नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने 4 जुलाई को पारित आदेश में कहा कि इस तरह की व्यवस्थागत देरी आपराधिक न्याय प्रणाली को कमजोर करती है और वंचित वर्गों के पीड़ितों पर असमान प्रभाव डालती है।
यह टिप्पणी उस समय आई जब अदालत एक ट्रायल कोर्ट के आदेश के ख़िलाफ़ पुनरीक्षण याचिका दाखिल करने में 325 दिनों की देरी को माफ़ करने की राज्य की अर्जी पर विचार कर रही थी। ट्रायल कोर्ट ने एक आरोपी को गैर-इरादतन हत्या और एससी/एसटी अधिनियम के तहत दर्ज मामले में बरी कर दिया था।
प्रसिक्यूटर पक्ष ने देरी के पीछे विभागीय औपचारिकताओं और फाइल के विभिन्न विभागों में घूमने को कारण बताया। राज्य सरकार ने दलील दी कि यह देरी जानबूझकर नहीं की गई और न्याय के हित में इसे माफ़ किया जाए। अदालत ने याचिका स्वीकार करते हुए देरी को तो माफ़ कर दिया, लेकिन राज्य को सख्त चेतावनी देते हुए इसे “गंभीर चिंता का विषय” बताया।

अदालत ने कहा, “इस तरह की देरी पीड़ितों के आरोपों की निष्पक्ष और पूर्ण सुनवाई के अधिकार को नुकसान पहुंचाती है और उस प्रणाली में उनका विश्वास डगमगाता है जो उन्हें संरक्षण देने के लिए बनाई गई है।” अदालत ने यह भी कहा कि समाज के हाशिए पर खड़े और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के पीड़ित अक्सर अपने लिए स्वतंत्र रूप से न्यायिक उपाय नहीं कर सकते और राज्य पर ही निर्भर रहते हैं।
न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि अदालतें देरी माफ़ करने में उदार रुख़ अपना सकती हैं, लेकिन यह रवैया “व्यवस्थागत उदासीनता या नौकरशाही की निष्क्रियता के लिए ढाल नहीं बन सकता।”
भविष्य में इस तरह की चूक को रोकने के लिए, अदालत ने आदेश की एक प्रति दिल्ली सरकार के अभियोजन निदेशक को भेजने का निर्देश दिया है। निदेशक को कहा गया है कि वह ऐसी देरी के कारणों की जांच करें और सुधारात्मक कदम उठाएं।
साथ ही, अदालत ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह समयबद्ध कानूनी कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए एक व्यापक नीति तैयार करे, जिसमें जांच अधिकारियों, अभियोजकों और प्रशासनिक विभागों की जवाबदेही तय की जाए। यह नीति आदेश प्राप्त होने के एक महीने के भीतर अदालत में पेश करनी होगी।