केवल विदेशी अदालत के आदेश के आधार पर नाबालिग की कस्टडी नहीं दी जा सकती: मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका खारिज की

मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने एक अमेरिकी निवासी पिता द्वारा अपने 10 वर्षीय पुत्र की कस्टडी के लिए दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज कर दिया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी विदेशी अदालत के आदेश के आधार पर बालक की कस्टडी नहीं दी जा सकती और नाबालिग के कल्याण को ही सर्वोपरि माना जाना चाहिए।

यह आदेश न्यायमूर्ति आनंद पाठक एवं न्यायमूर्ति राजेन्द्र कुमार वानी की खंडपीठ ने एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर पारित किया।

याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता श्री प्रशांत शर्मा एवं श्री रूद्राक्ष गुप्ता, राज्य की ओर से शासकीय अधिवक्ता श्री साकेत उदैनिया तथा निजी प्रतिवादी की ओर से अधिवक्ता श्री वी.डी. शर्मा एवं श्री हर्षित शर्मा उपस्थित रहे।

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पृष्ठभूमि

विवाह के बाद याचिकाकर्ता एवं उनकी पत्नी अमेरिका में बस गए थे। उनका पुत्र वर्ष 2015 में अमेरिका में जन्मा। वर्ष 2018 में मतभेद के कारण माँ बालक को लेकर भारत आ गईं और मध्यप्रदेश में रह रही हैं।

अमेरिका की सुपीरियर कोर्ट ऑफ न्यू जर्सी, चांसरी डिवीजन ने 4 अप्रैल 2023 को तलाक प्रदान करते हुए पिता को बालक की “पूर्ण शारीरिक एवं वैधानिक अभिरक्षा” प्रदान की। इस आदेश का पालन न होने पर याचिकाकर्ता ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की।

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दलीलें

याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया कि बालक “एक विदेशी नागरिक है जिसे भारत में अवैध रूप से रोका गया है” और “वह भारतीय नागरिक न होने के कारण भारत के नागरिकों को मिलने वाले अधिकारों से वंचित है।” उन्होंने comity of courts के सिद्धांत का हवाला देते हुए Yashita Sahu v. State of Rajasthan, (2020) 3 SCC 67, Tejaswini Gaud, तथा Rohith Thammana Gowda जैसे निर्णयों पर भरोसा किया।

प्रतिवादी की ओर से तर्क दिया गया कि यह याचिका अनुचित है क्योंकि यह “बंदी प्रत्यक्षीकरण के आवरण में अमेरिका की अदालत के आदेश को लागू कराने” का प्रयास है जबकि इसके लिए वैकल्पिक उपाय सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत उपलब्ध हैं।

प्रतिवादी ने Nithya Anand Raghavan v. State (NCT of Delhi), (2017) 8 SCC 454 जैसे सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों के फैसले का हवाला दिया, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बालक की भलाई सर्वोपरि है और बंदी प्रत्यक्षीकरण केवल विदेशी आदेश को लागू करने का साधन नहीं हो सकता।

कोर्ट के अवलोकन

कोर्ट ने कहा:

“यह संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण स्वरूप की याचिका है। आरोप के अनुसार, बालक (याचिकाकर्ता का पुत्र) प्रतिवादी नंबर 2 (जो उसकी माँ हैं) की अवैध अभिरक्षा में है।”

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नित्या आनंद राघवन के फैसले का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा:

“न्यायालय का प्रमुख कर्तव्य यह निर्धारित करना है कि क्या बालक की अभिरक्षा अवैध है, और क्या बालक के हित में उसकी वर्तमान अभिरक्षा को परिवर्तित किया जाना आवश्यक है तथा क्या उसे किसी अन्य व्यक्ति के संरक्षण में सौंपा जाना चाहिए।”

कोर्ट ने यह भी कहा:

“विदेशी अदालत का आदेश बालक के हित के समक्ष गौण हो जाता है।”

कोर्ट ने आगे यह स्पष्ट किया:

“बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका का उपयोग केवल विदेशी अदालत के आदेश को लागू कराने के लिए नहीं किया जा सकता… और उस क्षेत्राधिकार को कार्यान्वयन न्यायालय में परिवर्तित नहीं किया जा सकता।”

कोर्ट ने वैध अभिरक्षा पर टिप्पणी करते हुए कहा:

“एक बार यह तथ्य निर्धारित हो जाए कि बालक की माँ उसके साथ है, तो यह माना जा सकता है कि उसकी अभिरक्षा वैध है।”

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि:

Yashita Sahu v. State of Rajasthan, (2020) 3 SCC 67 एक दो सदस्यीय पीठ का निर्णय था जिसमें Nithya Anand Raghavan, Kanika Goel, तथा Prateek Gupta जैसे तीन सदस्यीय पीठों के निर्णयों का उल्लेख नहीं किया गया। अतः यह वर्तमान मामले में बाध्यकारी नहीं है।”

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कोर्ट ने याचिकाकर्ता को वैकल्पिक उपायों की ओर भी इंगित किया:

“याचिकाकर्ता के पास सिविल प्रक्रिया संहिता की विभिन्न धाराओं जैसे धारा 44A, 13 एवं 14 के अंतर्गत तथा यदि कानून अनुमति देता हो तो अभिभावक एवं संरक्षक अधिनियम, 1890 के अंतर्गत वैकल्पिक उपाय उपलब्ध हैं।”

निर्णय

कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए कहा:

“मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के संदर्भ में, भले ही याचिकाकर्ता अपने बच्चे से मिलने के प्रयास कर रहे हों, उपयुक्त विधिक प्रावधान एवं निर्णय उनके पक्ष में सहायक नहीं हैं। अतः याचिका असफल रहती है।”

हालांकि कोर्ट ने एक मानवीय पहलू जोड़ा:

“याचिकाकर्ता एक पिता होने के नाते, प्रतिवादी नंबर 2 से अपने पुत्र से मिलने का अनुरोध कर सकते हैं और यदि वह उचित समझें तो व्यक्तिगत रूप से या वीडियो कॉल पर मिलने की अनुमति दे सकती हैं। यह केवल न्यायालय की एक अपेक्षा है, कोई आदेश नहीं।”

इस टिप्पणी के साथ याचिका खारिज कर दी गई।

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