[CrPC की धाराएं 161 और 164] बयान दर्ज करने में देरी का स्पष्टीकरण मिलने पर आरोपी को स्वतः लाभ नहीं: सुप्रीम कोर्ट

एक महत्वपूर्ण निर्णय में, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि यदि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 161 और 164 के अंतर्गत गवाहों के बयानों को दर्ज करने में देरी उचित रूप से समझाई गई हो, तो वह देरी अपने आप में आरोपी के पक्ष में नहीं मानी जा सकती। यह फैसला फिरोज़ खान अकबर खान बनाम महाराष्ट्र राज्य (क्रिमिनल अपील संख्या 257/2013) में आया, जिसमें कोर्ट ने हत्या के आरोप में भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत आरोपी की सजा को बरकरार रखा।

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि अदालतों को देरी के कारणों की जांच करनी चाहिए और उसे अभियोजन पक्ष के खिलाफ स्वतः घातक नहीं मानना चाहिए।

मामला संक्षेप में:

यह घटना 19 अप्रैल 2005 की है, जब महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले में एक सार्वजनिक बाजार में सुखदेव महादेवराव धुर्वे की चाकू मारकर हत्या कर दी गई। यह घटना उसकी बहन के एक पुरुष से संबंधों को लेकर हुए झगड़े के बाद हुई। आरोपी फिरोज़ खान और सह-आरोपी मोहम्मद जकारिया को हत्या का दोषी ठहराया गया, जबकि तीसरे आरोपी को बरी कर दिया गया।

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ट्रायल कोर्ट ने फिरोज़ खान को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, जिसे बाद में बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने भी बरकरार रखा। इसके खिलाफ फिरोज़ खान ने सुप्रीम कोर्ट में या तो बरी किए जाने या कम से कम धारा 304 के तहत कम दंडनीय अपराध में बदलने की मांग की थी।

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CrPC की धाराएं 161 और 164: कानूनी प्रश्न

मामले का मुख्य कानूनी मुद्दा यह था कि पुलिस ने मुख्य चश्मदीद गवाहों के बयान CrPC की धारा 161 के तहत 2–3 दिन बाद दर्ज किए थे। फिरोज़ खान के वरिष्ठ वकील किरण सूरी (एडवोकेट निधि के साथ) ने तर्क दिया कि यह देरी गवाहों की विश्वसनीयता पर संदेह उत्पन्न करती है और पुलिस द्वारा बयान गढ़ने की आशंका को जन्म देती है।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया और कहा कि जब तक देरी का यथोचित स्पष्टीकरण हो, तब तक इसे अभियोजन के खिलाफ स्वतः हानिकारक नहीं माना जा सकता।

कोर्ट ने कहा, “बयानों को दर्ज करने में यदि कोई देरी होती है, तो उसे उस विशेष मामले के तथ्यों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।” अदालत ने आगे कहा कि घटना के तुरंत बाद हुए सांप्रदायिक दंगों के चलते देरी को उचित ठहराया जा सकता है।

कोर्ट ने लाल बहादुर बनाम राज्य (दिल्ली एनसीटी) और बलदेव सिंह बनाम पंजाब राज्य जैसे फैसलों का उल्लेख किया, जहां इससे भी अधिक देरी को स्वीकार किया गया था, जब उसका तार्किक स्पष्टीकरण दिया गया।

इस मामले में देरी क्यों आरोपी के पक्ष में नहीं गई?

न्यायमूर्ति अमानुल्लाह ने यह रेखांकित किया कि घटनास्थल पर आरोपी की मौजूदगी और मृतक को चाकू मारने की बात कई गवाहों द्वारा लगातार पुष्टि की गई। ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने इसे विश्वसनीय माना।

निर्णय में कहा गया:
“Stricto sensu, गवाहों के बयानों को दर्ज करने में देरी, विशेषकर जब वह देरी स्पष्ट रूप से समझाई गई हो, तो वह आरोपी के पक्ष में सहायक नहीं होती।”

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कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अक्सर उद्धृत किया जाने वाला निर्णय गणेश भवन पटेल बनाम महाराष्ट्र राज्य (1978) कोई कठोर नियम नहीं स्थापित करता। उस मामले में देरी के साथ-साथ एफआईआर में भी देरी और अन्य संदिग्ध परिस्थितियाँ थीं।

हत्या के आरोप को गैर-इरादतन हत्या में बदलने की याचिका खारिज

फिरोज़ खान के वकील ने यह भी दलील दी कि यह कृत्य पूर्व नियोजित नहीं था और क्रोध में आकर हुआ, अतः इसे धारा 304-भाग I के तहत माना जाए।

परंतु कोर्ट ने इस दलील को खारिज करते हुए कहा:

  • “वह हथियार लेकर आया था। वह तैयार होकर आया था।”
  • “हर चश्मदीद गवाह ने यह कहा कि अभियुक्त ने ही चाकू से वार किए, जो स्पष्ट करता है कि उसने जानबूझकर जानलेवा चोट पहुँचाने का इरादा बनाया था।”

समय से पहले रिहाई पर विचार

हालांकि सजा को बरकरार रखा गया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरोपी एक नई याचिका दाखिल कर सकता है क्योंकि वह पहले ही 14 साल से अधिक कारावास में और कुल 20 साल (छूट सहित) की अवधि पूरी कर चुका है। अदालत ने महाराष्ट्र सरकार को निर्देश दिया कि वह उसे उस रिहाई नीति के अनुसार विचार करे, जो या तो सजा के समय लागू थी या फिर वर्तमान में अधिक उदार हो।

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मुख्य बिंदु:

  • CrPC की धाराओं 161 या 164 के तहत गवाहों के बयानों को दर्ज करने में हुई देरी, यदि समझाई गई हो, तो अभियोजन पक्ष की विश्वसनीयता को स्वतः प्रभावित नहीं करती।
  • अदालत को मामले की परिस्थितियों, जैसे सांप्रदायिक तनाव आदि, के परिप्रेक्ष्य में देरी का मूल्यांकन करना चाहिए।
  • कई गवाहों द्वारा की गई पुष्टि और विश्वसनीयता, मामूली प्रक्रिया संबंधी चूक को पार कर सकती है।
  • क्षमादान (remission) का अधिकार राज्य की नीति पर निर्भर करता है, और उसे निष्पक्षता से विचार किया जाना चाहिए।

मामले का विवरण:

  • मामला: फिरोज़ खान अकबर खान बनाम महाराष्ट्र राज्य
  • मामला संख्या: क्रिमिनल अपील संख्या 257/2013
  • पीठ: न्यायमूर्ति अभय एस. ओका, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह, न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह
  • अपीलकर्ता के वकील: वरिष्ठ अधिवक्ता किरण सूरी, अधिवक्ता निधि
  • प्रतिवादी: महाराष्ट्र राज्य

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