शिकायतकर्ता द्वारा दायर आपराधिक पुनरीक्षण उसकी मृत्यु पर समाप्त नहीं होता; विधिक उत्तराधिकारी ‘पीड़ित’ के रूप में सहायता कर सकता है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि किसी शिकायतकर्ता (Informant) द्वारा दायर की गई आपराधिक पुनरीक्षण याचिका (Criminal Revision Petition) उसकी मृत्यु पर अपने आप समाप्त (Abate) नहीं होती है। जस्टिस संजय करोल और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि ऐसी स्थिति में हाईकोर्ट के पास यह विवेकाधिकार है कि वह मृतक के कानूनी वारिस को ‘पीड़ित’ (Victim) के रूप में कार्यवाही में सहायता करने की अनुमति दे सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द करते हुए सुनाया, जिसमें हाईकोर्ट ने कहा था कि दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) में प्रतिस्थापन (substitution) का कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए याचिकाकर्ता की मृत्यु के साथ ही रिविजन याचिका समाप्त हो जाती है।

क्या था पूरा मामला? (Background)

मामले की शुरुआत अपीलकर्ता के पिता, शमशाद अली द्वारा Cr.P.C. की धारा 156(3) के तहत एक आवेदन दायर करने से हुई थी। उन्होंने प्रतिवादियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग की थी। इसके बाद पुलिस ने जांच की और आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 419, 420, 467, 468, 471, 120-B और 34 के तहत आरोप पत्र दाखिल किया।

हालांकि, 7 मार्च 2020 को भोपाल के 17वें अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने आरोपियों को धारा 420 IPC (धोखाधड़ी) को छोड़कर बाकी सभी गंभीर धाराओं (जैसे जालसाजी आदि) से आरोप मुक्त (Discharge) कर दिया। इस आदेश से असंतुष्ट होकर शमशाद अली ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में आपराधिक रिविजन याचिका (Criminal Revision No. 1986 of 2020) दायर की।

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रिविजन याचिका लंबित रहने के दौरान, 5 मई 2021 को शमशाद अली का निधन हो गया। उनके बेटे (वर्तमान अपीलकर्ता) ने कार्यवाही जारी रखने के लिए हाईकोर्ट में आवेदन दिया। हाईकोर्ट ने 21 फरवरी 2024 को यह कहते हुए आवेदन खारिज कर दिया कि रिविजन में किसी को प्रतिस्थापित (substitute) करने का कानूनी प्रावधान नहीं है, इसलिए याचिका समाप्त मानी जाएगी।

कोर्ट में दलीलें (Arguments)

अपीलकर्ता का पक्ष: अपीलकर्ता की ओर से तर्क दिया गया कि वह Cr.P.C. की धारा 2(wa) के तहत ‘पीड़ित’ की परिभाषा में आता है, इसलिए उसे कार्यवाही जारी रखने का अधिकार है। वैकल्पिक रूप से, यह कहा गया कि एक बार जब कोर्ट रिविजन याचिका स्वीकार कर लेता है, तो उसे निचले कोर्ट के आदेश की वैधता और औचित्य की जांच करनी ही चाहिए, चाहे याचिकाकर्ता जीवित हो या नहीं।

प्रतिवादियों का पक्ष: आरोपियों की ओर से दलील दी गई कि Cr.P.C. की धारा 394 केवल अपीलों के उपशमन (abatement) से संबंधित है और रिविजन याचिका में कानूनी वारिसों को जारी रखने का कोई प्रावधान नहीं है। उनका कहना था कि पीड़ित अपील तो दायर कर सकता है, लेकिन रिविजन में उसे पक्षकार नहीं बनाया जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण (Analysis)

जस्टिस मनोज मिश्रा द्वारा लिखे गए फैसले में कोर्ट ने ‘उपशमन’ (Abatement) की अवधारणा और रिविजनल क्षेत्राधिकार की प्रकृति पर विस्तार से चर्चा की।

  1. रिविजनल शक्ति विवेकाधीन है: कोर्ट ने प्रबन कुमार मित्रा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1959) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि हाईकोर्ट की रिविजनल शक्ति एक विवेकाधीन शक्ति है, जिसका प्रयोग न्याय के हित में किया जाता है। कोर्ट ने कहा:
    “एक बार जब हाईकोर्ट किसी रिविजन याचिका पर विचार करता है, तो उसे कानून के अनुसार गुण-दोष पर निर्णय लेना होता है, चाहे याचिकाकर्ता जीवित हो या नहीं।”
  2. रिविजन और अपील में अंतर: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अपील के विपरीत, रिविजन याचिका में ‘लोकस’ (locus) का सख्त नियम लागू नहीं होता। यदि आरोपी की मृत्यु होती है तो ट्रायल समाप्त हो जाता है, लेकिन शिकायतकर्ता की मृत्यु पर कार्यवाही अपने आप समाप्त नहीं होती।
    “जहां रिविजन किसी शिकायतकर्ता की ओर से दायर की गई हो, वहां उसकी मृत्यु पर कार्यवाही समाप्त (abate) नहीं होगी। हाईकोर्ट अपने विवेक का प्रयोग करते हुए निचले कोर्ट के आदेश की वैधता की जांच जारी रख सकता है।”
  3. कानूनी वारिस की भूमिका: कोर्ट ने माना कि संहिता में प्रतिस्थापन का कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है, लेकिन साथ ही रिविजन के उपशमन का भी कोई प्रावधान नहीं है। कोर्ट ने कहा कि न्याय के उद्देश्य को पूरा करने के लिए कानूनी वारिस, जो पीड़ित की श्रेणी में आता है, कोर्ट की सहायता करने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति है।
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फैसला (Judgment)

सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के आदेश को “कानूनन अस्थिर” (unsustainable) करार दिया। कोर्ट ने कहा कि मूल शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि आरोपियों ने उसकी संपत्ति हड़पने के लिए फर्जी बैनामा तैयार किया था। चूंकि अपीलकर्ता (बेटा) उस संपत्ति में हित का वारिस होगा, इसलिए वह भी ‘पीड़ित’ है।

कोर्ट ने कहा:

“हमारी राय में, अपीलकर्ता अपराध का एक पीड़ित है और कार्यवाही के परिणाम में उसका महत्वपूर्ण हित है। इसलिए, रिविजनल कोर्ट उसे पीड़ित की हैसियत से कोर्ट की सहायता करने की अनुमति दे सकता था।”

सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए रिविजन याचिका को हाईकोर्ट में बहाल कर दिया और निर्देश दिया कि मामले का निपटारा कानून के अनुसार तेजी से किया जाए। अपीलकर्ता को ‘पीड़ित’ के रूप में कोर्ट की सहायता करने की स्वतंत्रता दी गई है।

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केस डीटेल्स

  • केस का नाम: सैयद शाहनवाज अली बनाम मध्य प्रदेश राज्य व अन्य
  • केस नंबर: क्रिमिनल अपील संख्या 5589-5590/2025
  • कोरम: जस्टिस संजय करोल और जस्टिस मनोज मिश्रा
  • साइटेशन: 2025 INSC 1484

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