हाल ही में दिए गए एक निर्णय में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने सी. कमलक्कन्नन को एक मामले में दस्तावेज़ों की जालसाजी के आरोप से बरी कर दिया, जिसमें एमबीबीएस प्रवेश के लिए मार्कशीट की जालसाजी का मामला शामिल था। कोर्ट ने जोर दिया कि हस्तलिपि पहचान विज्ञान की अपूर्ण प्रकृति के कारण, हस्तलिपि विशेषज्ञ की गवाही पर भरोसा करते समय अदालतों को अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिए।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 1996 में दर्ज एक आपराधिक शिकायत (एफआईआर संख्या 2172/1996) से उत्पन्न हुआ, जब कुमारी अमुधा ने एमबीबीएस प्रवेश के लिए एक जाली मार्कशीट प्रस्तुत की। जांच में खुलासा हुआ कि मार्कशीट में उसका स्कोर 1200 में से 1120 दर्शाया गया था, जबकि वास्तविक अंक 767 थे। अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि यह जाली मार्कशीट सी. कमलक्कन्नन द्वारा तैयार किए गए एक डाक लिफाफे के माध्यम से भेजी गई थी। इस आधार पर, निचली अदालत ने उन्हें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 120बी, 468 और 471 के तहत दोषी ठहराया।
विधिक कार्यवाही और मुद्दे
सी. कमलक्कन्नन को न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, तिरुवल्लूर द्वारा (केलेंडर केस संख्या 279/2011) में दोषी ठहराया गया था। अदालत ने उन्हें पहले से बिताई गई हिरासत की अवधि के बराबर कारावास और जुर्माने की सजा सुनाई। इस सजा को प्रधान सत्र न्यायाधीश, तिरुवल्लूर ने (क्रिमिनल अपील संख्या 47/2017) में बरकरार रखा, हालांकि जुर्माने की राशि कम कर दी गई। इसके बाद, उन्होंने मद्रास उच्च न्यायालय (क्रिमिनल रिवीजन केस संख्या 1601/2017) में चुनौती दी, लेकिन यह अपील 16 अप्रैल 2019 को खारिज कर दी गई। अंततः, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (क्रिमिनल) संख्या 3044/2021 के माध्यम से अपील की।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने अपना निर्णय (2025 INSC 309) सुनाते हुए अपीलकर्ता को इस आधार पर बरी कर दिया कि अभियोजन पक्ष विवादित डाक लिफाफे के अस्तित्व को साबित करने में विफल रहा और हस्तलिपि विशेषज्ञ की गवाही मात्र दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त नहीं थी।
कोर्ट ने मुरारी लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1980) 1 SCC 704 मामले में दिए गए ऐतिहासिक निर्णय का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि विशेषज्ञ गवाही को सावधानीपूर्वक जांचने की आवश्यकता होती है। फैसले में कहा गया:
“ऐसा कोई विधिक नियम नहीं है कि हस्तलिपि विशेषज्ञ की राय-साक्ष्य पर तब तक कार्रवाई नहीं की जा सकती जब तक कि उसे पर्याप्त रूप से पुष्ट नहीं किया जाए। हालांकि, हस्तलिपि पहचान विज्ञान की अपूर्णता के कारण, कुछ मामलों में पुष्टि आवश्यक हो सकती है।”
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि मूल डाक लिफाफे को कभी भी साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया था और केवल फोटोस्टेट कॉपी पर भरोसा करना कानूनी रूप से अवैध था। इसके अलावा, हस्तलिपि विशेषज्ञ की रिपोर्ट फॉरेंसिक जांच के दौरान तैयार की गई मूल तर्क-पत्र पर आधारित नहीं थी, जिससे यह साक्ष्य के रूप में अमान्य हो गई।
कोर्ट की टिप्पणियां
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि एक विशेषज्ञ केवल राय प्रस्तुत करता है, निर्णय नहीं करता। फैसले में कहा गया:
“एक विशेषज्ञ गवाही देता है, लेकिन निर्णय नहीं करता। अदालत को सावधानीपूर्वक कार्यवाही करनी चाहिए, राय के आधारों की जांच करनी चाहिए और अन्य सभी प्रासंगिक साक्ष्यों पर विचार करना चाहिए, इससे पहले कि वह विशेषज्ञ की गवाही पर भरोसा करे।”
इसके अलावा, कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में असफल रहा कि विवादित डाक लिफाफे पर लिखावट आरोपी की थी। चूंकि प्राथमिक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किए गए थे, इसलिए विशेषज्ञ की राय का कोई कानूनी आधार नहीं था।
अंततः, सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए निचली अदालत, अपीलीय अदालत और उच्च न्यायालय द्वारा सुनाई गई सजा को रद्द कर दिया। अपीलकर्ता को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और लंबित सभी आवेदन निस्तारित कर दिए गए।