झारखंड हाईकोर्ट ने हत्या के एक मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहे नंदलाल यादव को बरी कर दिया है। कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 164 के तहत दर्ज किया गया बयान किसी भी आरोपी की दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकता। न्यायमूर्ति सुजीत नारायण प्रसाद और न्यायमूर्ति राजेश कुमार की खंडपीठ ने कहा कि ऐसा बयान एक ठोस सबूत नहीं माना जा सकता और इसकी पुष्टि के लिए अन्य सबूतों की आवश्यकता होती है। कोर्ट ने यह भी कहा कि संदेह कितना भी गहरा क्यों न हो, वह कानून में सबूत का स्थान नहीं ले सकता।
यह अपील गोड्डा के प्रथम अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश द्वारा 1998 में दिए गए एक फैसले के खिलाफ दायर की गई थी, जिसमें श्री यादव को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 (हत्या) और धारा 201 (सबूत मिटाने) के तहत दोषी ठहराया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
अभियोजन पक्ष का मामला मृतक की पत्नी चंपा देवी (P.W. 2) द्वारा 4 मई, 1996 को दर्ज कराई गई एक प्राथमिकी (F.I.R.) पर आधारित था। उन्होंने बताया कि एक दिन पहले उनकी बकरी खो गई थी। जब उनके पति शाम को मजदूरी से लौटे, तो वह बकरी की तलाश में निकल गए। रात 8 बजे लौटकर उन्होंने बताया कि झुपारा उर्फ गोपाल राम, महावीर राम और शंकर राम ने बकरी को मार दिया है। खाना खाने के बाद, वह बकरी के पैसे मांगने के लिए झुपारा के घर गए, लेकिन उस रात वापस नहीं लौटे।

शिकायतकर्ता ने बताया कि गांव में कीर्तन और शादी का कार्यक्रम होने के कारण उन्हें लगा कि उनके पति वहीं रुक गए होंगे। अगली सुबह, उनके बेटे को झुपारा के नए घर के पास उनके पति का शव मिला, जिस पर कई चोटों के निशान थे। पुलिस ने जांच के बाद चार्जशीट दायर की और निचली अदालत ने नंदलाल यादव को दोषी ठहराया, जबकि अन्य आरोपी—झुपारा उर्फ गोपाल राम, शंकर राम, महावीर राम, मणिलाल यादव और दीपनारायण उर्फ बिभा राम—को बरी कर दिया था।
हाईकोर्ट के समक्ष दलीलें
अपीलकर्ता नंदलाल यादव की ओर से पेश अधिवक्ता श्रीमती प्रियंका बॉबी ने तर्क दिया कि यह दोषसिद्धि केवल “अनुमानों और अटकलों” पर आधारित है, क्योंकि घटना का कोई भी चश्मदीद गवाह नहीं था। उन्होंने दलील दी कि यह मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित था, लेकिन अभियोजन पक्ष सबूतों की एक पूरी श्रृंखला स्थापित करने में विफल रहा। यह भी कहा गया कि निचली अदालत का फैसला मुख्य रूप से धारा 164 के तहत दर्ज एक बयान पर आधारित था, जिसमें एक गवाह (P.W. 7, सुनील मंडल) ने मृतक को आखिरी बार अपीलकर्ता के साथ देखने का दावा किया था, लेकिन बाद में वह गवाह मुकदमे के दौरान अपने बयान से मुकर गया।
राज्य का प्रतिनिधित्व करते हुए, अतिरिक्त लोक अभियोजक श्री सुबोध कुमार दुबे ने निचली अदालत के फैसले का बचाव किया। उन्होंने तर्क दिया कि सभी गवाहों की गवाही को समग्र रूप से देखने पर हत्या में अपीलकर्ता की संलिप्तता स्पष्ट होती है और अभियोजन पक्ष ने अपना मामला संदेह से परे साबित कर दिया है।
न्यायालय का विश्लेषण और निष्कर्ष
हाईकोर्ट की खंडपीठ ने अपने विश्लेषण के लिए कई महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न तैयार किए, जिनमें मुख्य रूप से यह देखा गया कि क्या अभियोजन पक्ष अपराध साबित कर पाया और क्या दोषसिद्धि केवल धारा 164 के बयान पर आधारित हो सकती है।
कोर्ट ने पाया कि यह मामला पूरी तरह से परिस्थितिजन्य साक्ष्यों और ‘लास्ट सीन’ (अंतिम बार साथ देखे जाने) के सिद्धांत पर टिका था। कोर्ट ने नोट किया कि जिस गवाह (P.W. 7, सुनील मंडल) ने कथित तौर पर मृतक को अपीलकर्ता के साथ देखा था, वह मुकदमे के दौरान पक्षद्रोही (hostile) हो गया और उसने पुलिस को दिए गए महत्वपूर्ण बयानों से इनकार कर दिया।
पीठ ने धारा 164 के तहत दर्ज बयान के साक्ष्य मूल्य का विस्तृत विश्लेषण किया। कोर्ट ने कहा, “हालांकि धारा 164 Cr.P.C. के तहत दर्ज बयान अदालत में स्वीकार्य है, लेकिन इसका उपयोग मुख्य रूप से गवाह की विश्वसनीयता का मूल्यांकन करने के लिए किया जाता है। ऐसे बयान का उपयोग अदालत में गवाह की गवाही का समर्थन करने या उसका खंडन करने के लिए तो किया जा सकता है, लेकिन यह दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकता।”
सुप्रीम कोर्ट के आर. शाजी बनाम केरल राज्य [(2013) 14 SCC 266] मामले का हवाला देते हुए, हाईकोर्ट ने दोहराया कि ऐसे बयानों को “ठोस सबूत नहीं माना जा सकता,” क्योंकि बचाव पक्ष को बयान दर्ज करते समय गवाह से जिरह करने का अवसर नहीं मिलता है।
कोर्ट ने ‘लास्ट सीन’ के सिद्धांत को भी मामले में स्थापित नहीं माना और नवनीतकृष्णन बनाम राज्य [(2018) 16 SCC 161] मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख किया, जिसके अनुसार ‘लास्ट सीन’ का सिद्धांत एक महत्वपूर्ण कड़ी तो है, लेकिन “यह साक्ष्य अकेले आरोपी के अपराध को संदेह से परे स्थापित करने के बोझ को समाप्त नहीं कर सकता और इसके लिए अन्य सबूतों की पुष्टि आवश्यक है।”
फैसला
अपने विश्लेषण को समाप्त करते हुए, हाईकोर्ट ने माना कि अभियोजन पक्ष आरोपों को संदेह से परे साबित करने में विफल रहा है। पीठ ने कहा, “इस मामले की परिस्थितियाँ केवल वर्तमान अपीलकर्ता के खिलाफ संदेह पैदा करती हैं और संदेह, अपने आप में, चाहे कितना भी मजबूत क्यों न हो, सबूत का स्थान लेने और आरोपी की दोषसिद्धि का वारंट करने के लिए पर्याप्त नहीं है।”
16 जुलाई, 2025 को अपने अंतिम आदेश में, कोर्ट ने निचली अदालत द्वारा पारित दोषसिद्धि के फैसले और सजा के आदेश को रद्द कर दिया। अपील को स्वीकार कर लिया गया और नंदलाल यादव को सभी आरोपों से बरी करते हुए उनके जमानत बांड की देनदारियों से मुक्त कर दिया गया।