संविधान जबरन या धोखाधड़ी से धर्मांतरण का समर्थन नहीं करता: इलाहाबाद हाईकोर्ट

धार्मिक स्वतंत्रता की पवित्रता को दोहराते हुए और जबरन धर्मांतरण की प्रवृत्तियों के खिलाफ स्पष्ट रेखा खींचते हुए, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि भारतीय संविधान जबरन या धोखाधड़ी से किए गए धर्मांतरण का समर्थन नहीं करता। यह टिप्पणी न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर ने उत्तर प्रदेश अवैध धर्मांतरण निषेध अधिनियम, 2021 के तहत दर्ज प्राथमिकी रद्द करने की याचिका खारिज करते हुए की।

चारों आरोपियों पर आरोप है कि उन्होंने लोगों को ईसाई धर्म अपनाने के लिए धन और नि:शुल्क चिकित्सा सुविधा का प्रलोभन दिया। अदालत ने इन आरोपों को गंभीर बताते हुए पुलिस जांच को उचित ठहराया।

न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 25 का हवाला देते हुए कहा कि यह हर नागरिक को अपनी मर्जी से धर्म मानने, उसका पालन करने और प्रचार-प्रसार का अधिकार देता है, लेकिन यह अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन है।

“अनुच्छेद 25 में प्रयुक्त ‘स्वतंत्र रूप से’ शब्द धर्मिक आस्था और अभिव्यक्ति की स्वैच्छिक प्रकृति को रेखांकित करता है,” न्यायालय ने कहा।

“हालांकि, संविधान किसी भी प्रकार के जबरन या धोखाधड़ी से किए गए धर्मांतरण का समर्थन नहीं करता, न ही धार्मिक प्रचार-प्रसार की आड़ में की गई दबावपूर्ण या छलपूर्ण गतिविधियों को संरक्षण देता है।”

अदालत ने स्पष्ट किया कि धार्मिक स्वतंत्रता का संरक्षण सामाजिक स्थिरता और व्यक्तिगत स्वायत्तता की कीमत पर नहीं हो सकता।

“यह मान लेना कि कोई एक धर्म अन्य सभी से श्रेष्ठ है, यह विचार धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना के खिलाफ है,” अदालत ने कहा।

न्यायमूर्ति दिवाकर ने स्पष्ट किया कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान और राज्य द्वारा सभी आस्थाओं से समदूरी बनाए रखना है।

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 2021 में बनाए गए अवैध धर्मांतरण निषेध अधिनियम का उल्लेख करते हुए अदालत ने कहा कि यह कानून संविधान के मूल्यों के अनुरूप है, क्योंकि यह छल, बल, अनुचित प्रभाव, प्रलोभन, विवाह आदि के माध्यम से होने वाले धर्मांतरण को रोकने का प्रयास करता है।

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“ऐसी विधियों को लक्षित करके, यह कानून सामाजिक सौहार्द और कानून-व्यवस्था को प्रभावित करने वाली शोषणकारी और छलपूर्ण प्रवृत्तियों को रोकने का प्रयास करता है,” अदालत ने कहा।

फैसले में एक महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न का भी निपटारा किया गया: क्या किसी पुलिस अधिकारी को 2021 अधिनियम की धारा 4 के तहत “पीड़ित व्यक्ति” माना जा सकता है? इस धारा के तहत आमतौर पर शिकायत दर्ज कराने का अधिकार पीड़ित या उसके परिजनों को होता है।

इस पर अदालत ने स्पष्ट किया कि थाना प्रभारी (SHO) प्राथमिकी दर्ज कर सकते हैं, विशेषकर जब इस प्रावधान को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) के साथ पढ़ा जाए, जो संज्ञेय अपराधों में पुलिस को कार्रवाई का अधिकार देती है।

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न्यायालय का यह आदेश एक बार फिर स्पष्ट करता है कि जहां धार्मिक स्वतंत्रता भारतीय संविधान की आधारशिला है, वहीं इसका दुरुपयोग कर छलपूर्वक या बलपूर्वक धर्मांतरण को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता — और धर्मनिरपेक्षता एवं साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए इस सीमा को सावधानीपूर्वक बनाए रखना आवश्यक है।

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