केरल हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में दोहराया कि यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO अधिनियम) के तहत गंभीर अपराधों को आरोपी और शिकायतकर्ता के बीच समझौते के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। फैसला सुनाते हुए, न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन ने इस बात पर जोर दिया कि POCSO अधिनियम के कड़े प्रावधान गंभीर सामाजिक चिंताओं को दूर करने के लिए बनाए गए हैं और निजी समझौतों के जरिए इन्हें कम नहीं किया जा सकता।
मामले की पृष्ठभूमि
मामले में एक नाबालिग के खिलाफ यौन अपराधों के आरोपों से संबंधित आपराधिक मामले में शुरू की गई कार्यवाही को रद्द करने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत दायर एक याचिका शामिल थी। आरोपी पर भारतीय दंड संहिता (IPC), POCSO अधिनियम और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (IT अधिनियम) की विभिन्न धाराओं के तहत आरोप लगाए गए थे। अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि आरोपी ने नाबालिग से शादी का वादा करके उसके साथ बार-बार यौन संबंध बनाए।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि मामले को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया गया है, जैसा कि वयस्क होने के बाद शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत हलफनामे से स्पष्ट है, और उसने एफआईआर और सभी संबंधित कार्यवाही को रद्द करने की मांग की।
कानूनी मुद्दों की जांच
अदालत ने कई प्रासंगिक कानूनी सवालों पर विचार किया:
1. क्या समझौता हलफनामा POCSO अधिनियम के तहत कार्यवाही को रद्द करने को उचित ठहरा सकता है?
2. कथित सहमति से बने संबंधों से जुड़े मामलों में अदालतों को POCSO अधिनियम की व्याख्या कैसे करनी चाहिए?
3. Cr.P.C. की धारा 164 के तहत पीड़ित के दर्ज बयान का उन मामलों में क्या प्रभाव पड़ता है, जहां पीड़ित बाद में अपने बयान से पलट जाता है।
अदालत की टिप्पणियां
न्यायमूर्ति बदरुद्दीन ने पक्षों की सुनवाई और मिसालों की समीक्षा करने के बाद स्पष्ट रूप से माना कि POCSO अधिनियम के तहत गंभीर अपराधों से जुड़े मामलों में कार्यवाही को रद्द करने के लिए निजी समझौते वैध आधार नहीं हैं। उन्होंने कहा, “POCSO अधिनियम के तहत गंभीर अपराधों को समझौते के माध्यम से नहीं सुलझाया जा सकता, क्योंकि उनका समाज पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है और वे केवल निजी विवाद नहीं होते।”
अदालत ने Cr.P.C. की धारा 164 के तहत पीड़िता के दर्ज बयान का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि भले ही पीड़िता बाद में अपने आरोपों से मुकर जाए, लेकिन बयान अभियोजन पक्ष के मामले की पुष्टि कर सकता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि बाद में हुए समझौतों या शत्रुतापूर्ण गवाहों के कारण न्याय पटरी से न उतरे।
पूर्ववर्ती विश्लेषण
अदालत ने विजयलक्ष्मी बनाम राज्य में मद्रास हाईकोर्ट के एक फैसले को संबोधित किया, जिसमें किशोरों के बीच सहमति से बने संबंधों से जुड़े मामलों में विधायी हस्तक्षेप की आवश्यकता का सुझाव दिया गया था। हालांकि, न्यायमूर्ति बदरुद्दीन ने इस मिसाल की प्रयोज्यता को खारिज कर दिया, इसे सर्वोच्च न्यायालय के बाध्यकारी फैसलों के साथ विरोधाभासी बताते हुए इसे पर इनक्यूरियम घोषित किया। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि किशोर संबंधों के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण विकसित हो सकता है, लेकिन न्यायपालिका को कानून को उसी तरह बनाए रखना चाहिए जैसा वह है।
सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा, “POCSO अधिनियम के तहत जघन्य अपराधों से जुड़ी आपराधिक कार्यवाही को केवल पक्षों के बीच समझौते के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसे अपराधों का समाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है।”
न्यायालय का निर्णय
न्यायालय ने याचिका को खारिज करते हुए फैसला सुनाया कि अभियोजन पक्ष के साक्ष्य से प्रथम दृष्टया POCSO अधिनियम और संबंधित क़ानूनों के तहत गंभीर अपराध स्थापित होते हैं। इसने अधिकार क्षेत्र वाली अदालत को कानून के अनुसार मामले को आगे बढ़ाने का निर्देश दिया, यह सुनिश्चित करते हुए कि POCSO अधिनियम के पीछे सामाजिक मंशा बरकरार रखी जाए।