सुप्रीम कोर्ट ने 10 नवंबर, 2025 को एक महत्वपूर्ण फैसले में यह माना है कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 (CCA, 2015) की धारा 13(1A) के तहत, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश VII नियम 11 के तहत वाद (plaint) खारिज करने के आदेश के खिलाफ अपील की जा सकती है।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि वाद को खारिज करना सीपीसी की धारा 2(2) के तहत एक “डिक्री” (decree) माना जाता है। इसलिए, इसके खिलाफ अपील सीसीए, 2015 की धारा 13(1A) के मुख्य प्रावधान के तहत की जा सकती है, और यह उस धारा के परंतुक (proviso) द्वारा वर्जित नहीं है, जो केवल कुछ विशिष्ट अंतर्वर्ती आदेशों (interlocutory orders) के खिलाफ अपील को प्रतिबंधित करता है।
कोर्ट ने इस फैसले के साथ बॉम्बे हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसने ऐसी अपील को सुनवाई योग्य नहीं (non-maintainable) माना था।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता कंपनी, एमआईटीसी रोलिंग मिल्स प्राइवेट लिमिटेड, ने प्रतिवादी, मेसर्स रेणुका रियल्टर्स और अन्य, के खिलाफ नासिक जिला न्यायाधीश (ट्रायल कोर्ट) के समक्ष वाणिज्यिक मुकदमा (Commercial Suit No. 06 of 2021) दायर किया था। कंपनी ने TMT/Fe-500 सामग्री की आपूर्ति के लिए भुगतान न करने का आरोप लगाते हुए 2,52,38,828/- रुपये की वसूली की मांग की थी।
प्रतिवादियों ने सीपीसी के आदेश VII नियम 11 के तहत एक आवेदन दायर कर वाद को खारिज करने की मांग की। उनका आधार यह था कि अपीलकर्ता-कंपनी ने सीसीए, 2015 की धारा 12A के तहत अनिवार्य मुकदमा-पूर्व मध्यस्थता और समाधान (PIMS) प्रक्रिया का पालन नहीं किया था।
10 नवंबर, 2022 को ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादियों का आवेदन स्वीकार कर लिया और वाद को खारिज कर दिया।
इस आदेश से व्यथित होकर, अपीलकर्ता-कंपनी ने सीसीए, 2015 की धारा 13(1A) के तहत बॉम्बे हाईकोर्ट के समक्ष वाणिज्यिक प्रथम अपील (Commercial First Appeal No. 8 of 2023) दायर की। हालांकि, हाईकोर्ट ने 17 फरवरी, 2025 के अपने आदेश द्वारा अपील को सुनवाई योग्य नहीं मानते हुए खारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने माना कि वाद खारिज करने का आदेश सीपीसी के आदेश XLIII में विशेष रूप से सूचीबद्ध नहीं है, और इस कारण धारा 13(1A) के परंतुक के तहत इस पर अपील नहीं की जा सकती।
अपीलकर्ता-कंपनी ने हाईकोर्ट के इसी आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता-कंपनी की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता श्री जय सावला ने सीपीसी की धारा 2(2) का हवाला दिया, जो “डिक्री” को परिभाषित करती है। उन्होंने तर्क दिया कि इस परिभाषा में “वाद को खारिज करना स्पष्ट रूप से शामिल माना गया है”। उन्होंने दलील दी कि चूँकि वाद को खारिज करना एक अंतिम निर्णय है जिसे डिक्री माना जाता है, इसलिए सीसीए, 2015 की धारा 13(1A) के तहत अपील सुनवाई योग्य थी और हाईकोर्ट ने इसकी व्याख्या करने में त्रुटि की।
इसके विपरीत, प्रतिवादियों की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता श्री सुकुमार पी. जोशी ने हाईकोर्ट के आदेश का समर्थन किया। उन्होंने बैंक ऑफ इंडिया बनाम मारुति सिविल वर्क्स (2023 एससीसी ऑनलाइन बॉम 2667) के मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, और कहा कि सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने भी उस फैसले की पुष्टि की थी, इसलिए अपील को सही ही सुनवाई योग्य नहीं माना गया।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
जस्टिस मेहता द्वारा लिखे गए फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने सबसे पहले केंद्रीय विवाद को स्पष्ट किया: “क्या सीपीसी के आदेश VII नियम 11 के तहत वाद खारिज करने का आदेश सीसीए, 2015 की धारा 13(1A) के तहत अपील योग्य है।”
खंडपीठ ने स्पष्ट रूप से कहा, “इस पहलू पर कोई दो राय नहीं हो सकती कि आदेश VII नियम 11 सीपीसी के तहत वाद खारिज करने का आदेश विवाद (lis) का अंतिम रूप से फैसला करता है और यह सीपीसी की धारा 2(2) के अर्थ के भीतर एक डिक्री के समान होगा।”
कोर्ट ने शमशेर सिंह बनाम राजिंदर प्रसाद ((1973) 2 एससीसी 524) में अपने पहले के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था: “मौजूदा मामले में, वाद को आदेश 7 नियम 11 सीपीसी के तहत खारिज कर दिया गया था। ऐसा आदेश धारा 2(2) के तहत एक डिक्री के समान है, और वादी के पास अपील का अधिकार उपलब्ध है।”
इसके बाद फैसले में सीसीए, 2015 की धारा 13(1A) की संरचना का विश्लेषण किया गया। कोर्ट ने कहा कि यह धारा “दो अलग-अलग हिस्सों” में है: पहला, मुख्य प्रावधान जो ‘निर्णयों’ (judgments) और ‘आदेशों’ (orders) के खिलाफ अपील की अनुमति देता है, और दूसरा, एक परंतुक (proviso)।
कोर्ट ने माना कि यह परंतुक एक अपवाद के रूप में कार्य करता है और “केवल अंतर्वर्ती आदेशों के खिलाफ अपील को उन तक सीमित करता है जो विशेष रूप से आदेश XLIII सीपीसी के तहत सूचीबद्ध हैं”। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि परंतुक का इस्तेमाल “मुख्य अधिनियम के दायरे को कम करने या छोटा करने के लिए नहीं किया जा सकता है।”
चूंकि वाद को खारिज करना एक “डिक्री” है – यानी एक अंतिम निर्णय – यह धारा 13(1A) के मुख्य प्रावधान के तहत अपील योग्य है, और परंतुक (जो अंतर्वर्ती आदेशों पर लागू होता है) इस पर लागू नहीं होता।
सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिवादियों द्वारा उद्धृत बैंक ऑफ इंडिया मामले को भी वर्तमान मामले से “स्पष्ट रूप से भिन्न” (clearly distinguishable) बताया। खंडपीठ ने कहा कि उस मामले में चुनौती एक आवेदन को खारिज करने के आदेश को दी गई थी (जो आदेश VII नियम 10 या नियम 11(d) के तहत था), जो एक अंतर्वर्ती आदेश है और आदेश XLIII में सूचीबद्ध नहीं है। कोर्ट ने पाया कि यह स्थिति वाद को ही खारिज करने के आदेश से अलग है, जो एक डिक्री के समान है।
कोर्ट ने अपने विश्लेषण का समापन यह देखते हुए किया, “वह वादी जो आदेश VII नियम 11 सीपीसी के तहत वाद खारिज किए जाने के आदेश से व्यथित है, उसे उपायहीन (remediless) नहीं छोड़ा जा सकता या ऐसी चुनौती का लाभ उठाने के लिए नया मुकदमा दायर करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।”
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि बॉम्बे हाईकोर्ट का आक्षेपित आदेश “कानूनी जांच में खरा नहीं उतरता” (does not stand to scrutiny) और उसे “रद्द और अपास्त किया जाता है” (quashed and set aside)।
हाईकोर्ट में अपीलकर्ता-कंपनी द्वारा दायर की गई अपील को “सुनवाई योग्य माना गया और इसलिए, उसे उसकी मूल फाइल और मूल संख्या पर बहाल किया जाता है।” सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि वह “कानून के अनुसार, गुण-दोष के आधार पर (on merits) उस पर विचार करे और निर्णय ले।”




