झूठे आरोप के पीछे कोई मजबूत मकसद न हो तो अदालत को सामान्यतः साक्ष्य स्वीकार कर लेना चाहिए: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने नाबालिग बेटी से दुष्कर्म के दोषी व्यक्ति की सजा को संशोधित किया है। अदालत ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376(3) के तहत दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए, आजीवन कारावास (प्राकृतिक मृत्यु तक) की सजा को घटाकर 20 वर्ष के कठोर कारावास में बदल दिया। यह फैसला मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति रविंद्र कुमार अग्रवाल की खंडपीठ ने सीआरए नंबर 1528/2021 में दिया। यह अपील विशेष सत्र न्यायाधीश, डोंगरगढ़ द्वारा विशेष आपराधिक प्रकरण संख्या 04/2019 में दिए गए निर्णय के खिलाफ दायर की गई थी।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला थाना बोरतलाब, जिला राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ में दर्ज एफआईआर से उत्पन्न हुआ। रेलवे चाइल्ड हेल्पलाइन, रायपुर की सदस्य ज्योति गुप्ता ने शिकायत दर्ज कराई थी कि पीड़िता, एक नाबालिग लड़की, अपने पिता द्वारा शारीरिक शोषण के बाद 19 फरवरी 2019 को घर से भाग गई थी।

पीड़िता को रायपुर रेलवे स्टेशन पर अभिभावकविहीन स्थिति में पाया गया, जिसके बाद उसे बाल कल्याण समिति (CWC) द्वारा संरक्षण में लिया गया। समिति के निर्देश पर पुलिस ने एफआईआर दर्ज की। जांच के बाद आरोपी को 4 मार्च 2019 को गिरफ्तार किया गया और उसके खिलाफ IPC की धारा 376 तथा POCSO अधिनियम, 2012 की धारा 4 और 6 के तहत मामला दर्ज किया गया।

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कानूनी मुद्दे और अदालत का निर्णय

मुकदमे के दौरान अभियोजन पक्ष ने 18 गवाह और 31 दस्तावेज पेश किए। हाईकोर्ट के समक्ष प्रमुख कानूनी प्रश्न थे:

1. पीड़िता की गवाही की विश्वसनीयता

आरोपी के वकील गोविंद देवांगन ने तर्क दिया कि पीड़िता की गवाही में विरोधाभास है, इसे कोई अन्य साक्ष्य समर्थन नहीं करता, और उसकी आयु स्पष्ट रूप से सिद्ध नहीं हुई

हालांकि, हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यौन अपराधों के मामलों में पीड़िता की गवाही को उचित सम्मान दिया जाना चाहिए और इसे corroboration (अन्य साक्ष्यों से पुष्टि) की आवश्यकता नहीं होती, जब तक कि परिस्थितियां अन्यथा न दर्शाएं।

2. पीड़िता की आयु का निर्धारण

अभियोजन पक्ष ने स्कूल के दस्तावेज प्रस्तुत किए, जिनके अनुसार पीड़िता का जन्म 21 फरवरी 2004 को हुआ, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि घटना के समय वह नाबालिग थी।

अदालत ने कहा कि स्कूली रिकॉर्ड पर्याप्त साक्ष्य हैं और इनकी प्रमाणिकता को संदेह के दायरे में नहीं रखा जा सकता।

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3. एफआईआर दर्ज करने में देरी

बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि एफआईआर दर्ज करने में हुई देरी से अभियोजन का मामला कमजोर होता है।

हालांकि, अदालत ने कहा कि यौन अपराधों के मामलों में रिपोर्टिंग में देरी होना स्वाभाविक है, क्योंकि पीड़ित मानसिक आघात और सामाजिक कलंक की चिंता के कारण तुरंत शिकायत दर्ज नहीं कर पाते।

हाईकोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियां

निर्णय सुनाते हुए हाईकोर्ट ने पीड़िता की गवाही को संवेदनशीलता के साथ स्वीकार करने की आवश्यकता पर जोर दिया और सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसलों का हवाला दिया।

अदालत ने कहा:

“यौन अपराध की पीड़िता को अभियुक्त का साथी (Accomplice) नहीं माना जा सकता। वह वास्तव में अपराध की शिकार होती है। यदि रिकॉर्ड में मौजूद परिस्थितियों से यह स्पष्ट हो कि पीड़िता के पास झूठा आरोप लगाने की कोई ठोस मंशा नहीं है, तो अदालत को आमतौर पर उसकी गवाही स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए।”

अदालत ने ‘पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह (1996)’ और ‘रंजीत हजारिका बनाम असम राज्य (1998)’ मामलों का हवाला देते हुए कहा कि बलात्कार पीड़िताओं की गवाही को घायल गवाहों की गवाही के समान दर्जा दिया जाना चाहिए और इसे संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए।

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अंतिम निर्णय

हालांकि हाईकोर्ट ने दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन आजीवन कारावास (प्राकृतिक मृत्यु तक) की सजा को संशोधित करते हुए 20 वर्ष के कठोर कारावास में बदल दिया।

इसके अलावा:

  • रुपये 500 का जुर्माना और डिफ़ॉल्ट पर एक महीने का कठोर कारावास भी बरकरार रखा गया।
  • आरोपी, जो 4 मार्च 2019 से हिरासत में है, उसे संशोधित सजा पूरी करनी होगी।
  • अदालत ने जेल अधीक्षक को निर्णय की प्रति भेजने का निर्देश दिया और आरोपी को बताया कि वह सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर सकता है तथा निःशुल्क कानूनी सहायता प्राप्त करने का हकदार है।

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