छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में एकल न्यायाधीश (Single Judge) के उस आदेश को रद्द कर दिया है, जिसके तहत अदानी पावर लिमिटेड द्वारा संचालित एक बिजली परियोजना के लिए 2010 में शुरू की गई भूमि अधिग्रहण कार्यवाही को खारिज कर दिया गया था।
मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति बिभु दत्त गुरु की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 5A के तहत आपत्तियां सख्ती से केवल भूमि के अधिग्रहण से संबंधित होनी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि यदि शिकायतें केवल मुआवजे की दर, रोजगार या पुनर्वास तक सीमित हैं, तो वे धारा 5A के दायरे में नहीं आती हैं और इनके लिए अलग से वैधानिक उपचार उपलब्ध हैं।
यह फैसला 15 दिसंबर, 2025 को सुनाया गया, जिसके तहत अदानी पावर लिमिटेड, छत्तीसगढ़ राज्य और छत्तीसगढ़ राज्य औद्योगिक विकास निगम (CSIDC) द्वारा दायर तीन रिट अपीलों को स्वीकार कर लिया गया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद 3 जुलाई, 2010 को राज्य सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 4(1) के तहत जारी एक अधिसूचना से शुरू हुआ था। इस अधिसूचना में औद्योगिक विकास, विशेष रूप से एक थर्मल पावर प्रोजेक्ट के लिए जिला रायगढ़ के ग्राम बड़ेभंडार में भूमि अधिग्रहण का प्रस्ताव रखा गया था।
प्रतिवादी नंबर 1, पंचानंद गुप्ता (भूस्वामी) ने 2 अगस्त, 2010 को अपनी आपत्तियां दर्ज कराई थीं। अनुविभागीय अधिकारी (SDO) ने इन आपत्तियों पर सुनवाई की और 26 अगस्त, 2010 को एक आदेश पारित किया। इसके बाद, धारा 6 के तहत घोषणा जारी की गई और 14 जनवरी, 2011 को अंतिम अवार्ड पारित किया गया। भूमि का कब्जा ले लिया गया और 2013 से यह बिजली परियोजना पूरी तरह से चालू है।
हालांकि, भूस्वामी ने कार्यवाही को चुनौती दी और आरोप लगाया कि अधिनियम की धारा 5A के तहत अनिवार्य प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। 14 अगस्त, 2025 को विद्वान एकल न्यायाधीश ने रिट याचिका को स्वीकार कर लिया और प्रतिवादी की भूमि के संबंध में अधिग्रहण कार्यवाही को रद्द कर दिया। इस निर्णय से असंतुष्ट होकर, अदानी पावर लिमिटेड और राज्य के अधिकारियों ने खंडपीठ के समक्ष अपील दायर की थी।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता (अदानी पावर, राज्य शासन, CSIDC): अपीलकर्ताओं की ओर से उपस्थित वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव श्रीवास्तव और वरिष्ठ अधिवक्ता प्रफुल्ल एन. भारत ने तर्क दिया कि प्रतिवादी ने कभी भी “सार्वजनिक उद्देश्य” (Public Purpose) या अधिग्रहण की आवश्यकता पर आपत्ति नहीं जताई थी। यह दलील दी गई कि प्रतिवादी की आपत्तियां “विशेष रूप से मुआवजे की दर, परिवार के किसी सदस्य को रोजगार, स्वास्थ्य सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण के उपायों तक ही सीमित थीं।”
अपीलकर्ताओं का कहना था कि चूंकि अधिग्रहण को चुनौती नहीं दी गई थी, इसलिए धारा 5A के कड़े प्रावधान लागू नहीं होते। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि यह परियोजना पिछले लगभग 15 वर्षों से चल रही है और इसमें भारी निवेश किया गया है। अतः, केवल एक भूस्वामी द्वारा उठाई गई प्रक्रियात्मक खामियों के आधार पर एक संपन्न हो चुके अधिग्रहण को रद्द करना उचित नहीं था।
प्रतिवादी (भूस्वामी): प्रतिवादी के वकील ने एकल न्यायाधीश के आदेश का समर्थन करते हुए तर्क दिया कि “भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 5A के तहत निर्धारित अनिवार्य प्रक्रिया का उसकी मूल भावना के अनुरूप पालन नहीं किया गया।” यह कहा गया कि SDO ने धारा 5A(2) के तहत सार्थक जांच किए बिना ही आपत्तियों को सरसरी तौर पर निपटा दिया और कलेक्टर ने धारा 6 के तहत घोषणा जारी करते समय केवल एक “रबर स्टैम्प” की तरह कार्य किया।
कोर्ट का विश्लेषण और अवलोकन
खंडपीठ ने प्रतिवादी द्वारा दायर आपत्तियों की प्रकृति का गहन परीक्षण किया और पाया कि “सार्वजनिक उद्देश्य, अधिग्रहण की आवश्यकता, भूमि की उपयुक्तता या अधिग्रहण करने वाले प्राधिकरण की क्षमता को लेकर कोई आपत्ति नहीं थी।”
धारा 5A के दायरे पर: कोर्ट ने कहा कि धारा 5A(1) किसी व्यक्ति को भूमि के अधिग्रहण पर आपत्ति करने का अधिकार देती है, लेकिन यह मुआवजे या अनुषंगी लाभों से संबंधित दावों के न्यायनिर्णयन की परिकल्पना नहीं करती है। पीठ ने कहा:
“इस प्रकृति की आपत्तियां अधिग्रहण की जड़ पर प्रहार नहीं करती हैं। ये संपार्श्विक (collateral) मांगें हैं, जो भले ही अन्यथा वैध हों, लेकिन धारा 5A के दायरे से बाहर हैं। इनका समाधान धारा 11 के तहत मुआवजे के निर्धारण के चरण में, धारा 18 के तहत संदर्भ (Reference) मांगकर, या लागू पुनर्वास अथवा पर्यावरण ढांचे के तहत किया जाना चाहिए।”
कोर्ट ने कहा कि मुआवजे को अप्रत्यक्ष रूप से चुनौती देने के लिए धारा 5A का उपयोग करने की अनुमति देने से “इस वैधानिक अंतर को मिटा दिया जाएगा और धारा 11 तथा 18 निरर्थक हो जाएंगी।”
“आगे की जांच” (Further Inquiry) की आवश्यकता पर: विस्तृत जांच न होने के प्रतिवादी के दावे पर कोर्ट ने स्पष्ट किया:
“धारा 5A(2) में प्रयुक्त अभिव्यक्ति ‘ऐसी और जांच करने के पश्चात, यदि कोई हो, जिसे वह आवश्यक समझे’ विवेकाधीन है, न कि हर मामले में अनिवार्य। जहां आपत्तियां अधिग्रहण पर सवाल नहीं उठातीं, बल्कि धारा 5A के वैधानिक दायरे से बाहर के मुद्दे उठाती हैं, वहां विस्तृत जांच या विस्तृत सिफारिशों का अभाव कार्यवाही को दूषित नहीं करता है।”
पूर्ण हो चुके अधिग्रहण पर: कोर्ट ने समय बीतने के महत्व पर जोर दिया और नोट किया कि यह परियोजना एक दशक से अधिक समय से जनहित में सेवा कर रही है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले न्यू ओखला इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाम दर्शन लाल बोहरा (2024) का हवाला देते हुए, पीठ ने टिप्पणी की:
“अदालतों को संपन्न हो चुके अधिग्रहणों को अस्थिर करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए, विशेष रूप से जहां बड़ी सार्वजनिक या बुनियादी ढांचा परियोजनाएं अस्तित्व में आ गई हैं और तीसरे पक्ष के अधिकार हस्तक्षेप कर चुके हैं… एक अकेले भूस्वामी द्वारा उठाए गए मामूली प्रक्रियात्मक आधारों पर समय को पीछे नहीं मोड़ा जाना चाहिए।”
निर्णय
हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि प्रतिवादी द्वारा उठाई गई आपत्तियां धारा 5A के दायरे में वास्तविक अर्थों में नहीं आती हैं और कार्यवाही को दूषित करने वाली कोई अवैधता नहीं पाई गई। कोर्ट ने कहा:
“विद्वान एकल न्यायाधीश ने प्रतिवादी नंबर 1 की भूमि के संबंध में धारा 6 के तहत अधिसूचना, 26.08.2010 के आदेश और 14.01.2011 के अवार्ड को रद्द करने में त्रुटि की है।”
परिणामस्वरूप, अपीलें स्वीकार कर ली गईं और एकल न्यायाधीश के 14 अगस्त, 2025 के आदेश को निरस्त कर दिया गया। अधिग्रहण की कार्यवाही को पूर्णतः वैध ठहराया गया। कोर्ट ने प्रतिवादी को यह स्वतंत्रता दी है कि यदि उसने पहले ही ऐसा नहीं किया है, तो वह कानून के अनुसार अधिनियम की धारा 18 के तहत वैधानिक उपचार का लाभ उठाकर मुआवजे में वृद्धि की मांग कर सकता है।

