केरल हाईकोर्ट ने चेक अनादरण (dishonour) के एक मामले में आरोपी को बरी करने के फैसले को बरकरार रखते हुए एक महत्वपूर्ण व्यवस्था दी है। हाईकोर्ट ने कहा है कि एक आरोपी परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) की धारा 139 के तहत कानूनी धारणा (statutory presumption) का सफलतापूर्वक खंडन कर सकता है, यदि वह शिकायतकर्ता के अपने ही साक्ष्यों में गंभीर संदेह और विरोधाभासों को उजागर कर दे। न्यायमूर्ति जॉनसन जॉन ने कहा कि एक बार जब आरोपी शिकायतकर्ता के मामले पर “संदेह की छाया” डालकर एक संभावित बचाव स्थापित कर देता है, तो अपने मामले को साबित करने का भार वापस शिकायतकर्ता पर आ जाता है, जिसे वह इस मामले में करने में विफल रहा।
यह फैसला कोडुंगल्लूर के प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के उस निर्णय को सही ठहराता है, जिसमें पूर्णिमा फाइनेंस के प्रबंध भागीदार शैलप्पन (शिकायतकर्ता) द्वारा दायर मामले में सबिथा (आरोपी) को बरी कर दिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि

शिकायतकर्ता शैलप्पन का आरोप था कि सबिथा ने एक कर्ज के भुगतान के लिए 19 दिसंबर, 2005 की तारीख का 1,00,000 रुपये का चेक जारी किया था। जब चेक को भुगतान के लिए बैंक में प्रस्तुत किया गया, तो वह “अपर्याप्त धनराशि” के कारण अनादृत हो गया। वैधानिक नोटिस जारी करने के बावजूद, आरोपी ने राशि का भुगतान नहीं किया, जिसके कारण एन.आई. एक्ट की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज की गई।
ट्रायल कोर्ट ने सबूतों का मूल्यांकन करने के बाद पाया कि शिकायतकर्ता अपराध साबित करने में सफल नहीं हुआ था और आरोपी को बरी कर दिया था। इसी फैसले के खिलाफ शिकायतकर्ता ने हाईकोर्ट में अपील की थी।
दोनों पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता के वकील, श्री अब्राहम जे. कनियामपडी ने तर्क दिया कि आरोपी ने चेक (प्रदर्श P1) पर अपने हस्ताक्षर से इनकार नहीं किया था। इसलिए, ट्रायल कोर्ट का यह निष्कर्ष कि शिकायतकर्ता के पक्ष में कानूनी धारणा का खंडन किया गया है, कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं था। अपीलकर्ता ने यह भी दलील दी कि आरोपी द्वारा वैधानिक नोटिस का जवाब न देना शिकायतकर्ता के मामले में दम होने का संकेत देता है, और यह साबित करने का भार आरोपी पर था कि कोई कर्ज मौजूद नहीं था।
आरोपी का प्रतिनिधित्व करते हुए, श्री रंजन सुरेश ने तर्क दिया कि शिकायतकर्ता ने शिकायत या अपने मुख्य हलफनामे में चेक के निष्पादन और जारी करने की तारीख का खुलासा नहीं किया था। वकील ने शिकायत के कथनों और जिरह (cross-examination) के दौरान शिकायतकर्ता की गवाही के बीच विरोधाभासों की ओर इशारा किया। यह भी तर्क दिया गया कि शिकायतकर्ता पूर्णिमा फाइनेंस का प्रतिनिधित्व करने के लिए अपने अधिकार को साबित करने वाला कोई भी दस्तावेज़ पेश करने में विफल रहा।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
न्यायमूर्ति जॉनसन जॉन ने सबूतों का सावधानीपूर्वक पुनर्मूल्यांकन करने पर ट्रायल कोर्ट के फैसले में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाया।
हाईकोर्ट ने सबसे पहले यह नोट किया कि चेक “मेसर्स पूर्णिमा फाइनेंस” के पक्ष में जारी किया गया था। हालांकि, शिकायतकर्ता (PW1), प्रबंध भागीदार होने का दावा करने के बावजूद, “इसे साबित करने के लिए कोई दस्तावेज़ पेश नहीं कर सका।”
फैसले में शिकायतकर्ता की गवाही में महत्वपूर्ण विरोधाभासों को उजागर किया गया। PW1 ने दावा किया कि ऋण 3 अक्टूबर, 2005 को एक वचन पत्र (promissory note) के माध्यम से दिया गया था, और चेक 19 दिसंबर, 2005 को जारी किया गया था, जिस समय उसने वचन पत्र वापस कर दिया था। फिर उसने तुरंत खुद को सुधारते हुए कहा कि नोट वापस नहीं किया गया था।
बचाव पक्ष का संस्करण यह था कि चेक ऋण के लिए नहीं, बल्कि शिकायतकर्ता के दूसरे व्यवसाय, “पूर्णिमा ज्वैलरी” से सोने के गहनों की खरीद के लिए एक खाली सुरक्षा चेक के रूप में दिया गया था। आरोपी के पिता (DW1) ने गवाही दी कि उन्होंने 15 अप्रैल, 2005 को 1,56,208/- रुपये का सोना खरीदा, 20,000/- रुपये का भुगतान किया, और शेष राशि के लिए आरोपी का खाली चेक दिया। शिकायतकर्ता ने स्वयं जिरह में स्वीकार किया कि वह पूर्णिमा ज्वैलरी भी चलाता है और सोने की खरीद से संबंधित एक खाता पर्ची (प्रदर्श D2) उसकी लिखावट में थी।
हाईकोर्ट ने स्थापित कानूनी सिद्धांतों पर भरोसा किया और सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्णयों का हवाला दिया:
- एम.एस. नारायण मेनन बनाम केरल राज्य (2006): आरोपी के लिए धारणा का खंडन करने हेतु सबूत का मानक “उचित संदेह से परे” नहीं है। यदि रिकॉर्ड पर ऐसी सामग्री लाई जाती है जो निर्दोषिता के अनुरूप हो और “उचित रूप से सत्य हो सकती है”, तो आरोपी बरी होने का हकदार है।
- बसलिंगप्पा बनाम मुदिबसप्पा (2019): धारा 139 के तहत धारणा खंडन करने योग्य है, और आरोपी पर “संभावित बचाव” उठाने का भार है, जो “संभावनाओं की प्रबलता” (preponderance of probabilities) पर आधारित है।
- एएनएसएस राजशेखर बनाम ऑगस्टस जेबा अनंत (2019): जब शिकायतकर्ता की जिरह से प्राप्त साक्ष्य “कर्ज के अस्तित्व के बारे में गंभीर संदेह पैदा करते हैं”, तो धारणा का खंडन हो जाता है।
इन सिद्धांतों को लागू करते हुए, हाईकोर्ट ने पाया कि बचाव पक्ष ने सफलतापूर्वक एक संभावित मामला स्थापित किया था। शिकायतकर्ता के आभूषण व्यवसाय चलाने के सबूत, सोने की खरीद के लेनदेन को दर्शाने वाले दस्तावेजों (Ext.D1 और D2) के साथ, कानूनी धारणाओं का खंडन करने के लिए पर्याप्त थे।
अंतिम निर्णय
हाईकोर्ट ने माना कि ट्रायल कोर्ट का निष्कर्ष सही था और शिकायतकर्ता यह साबित करने में विफल रहा कि चेक कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण के निर्वहन में निष्पादित किया गया था।
अदालत ने अपील खारिज करते हुए आदेश दिया, “संपूर्ण साक्ष्यों के सावधानीपूर्वक पुनर्मूल्यांकन पर, मुझे विवादित फैसले के इस निष्कर्ष में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं मिलता है कि शिकायतकर्ता आरोपी के खिलाफ एन.आई. एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध साबित करने में सफल नहीं हुआ है।”