संज्ञेय अपराध बनने पर FIR दर्ज होनी ही चाहिए; वैकल्पिक उपचार हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र में पूर्ण बाधा नहीं; जांच करने वालों की भी जांच हो सकती है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में दिल्ली हाईकोर्ट के उस निर्णय को बरकरार रखा है, जिसमें केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के दो अधिकारियों, विनोद कुमार पांडे और नीरज कुमार, के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करने का निर्देश दिया गया था। न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले की पीठ ने पुष्टि की कि अधिकारियों के खिलाफ लगे आरोपों से प्रथम दृष्टया एक संज्ञेय अपराध बनता है, जिसकी जांच की जानी चाहिए। पीठ ने विशेष रूप से यह टिप्पणी की, “यह उचित समय है कि कभी-कभी जांच करने वालों की भी जांच की जानी चाहिए, ताकि आम जनता का व्यवस्था में विश्वास बना रहे।”

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला 2001 में शीश राम सैनी और विजय अग्रवाल द्वारा दिल्ली हाईकोर्ट के समक्ष दायर दो अलग-अलग रिट याचिकाओं से शुरू हुआ था। दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के साथ पठित संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दायर इन याचिकाओं में तत्कालीन सीबीआई इंस्पेक्टर विनोद कुमार पांडे और तत्कालीन संयुक्त निदेशक नीरज कुमार के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग की गई थी।

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शीश राम सैनी की 5 जुलाई, 2001 की शिकायत में जालसाजी और आपराधिक साजिश सहित अन्य अपराधों का आरोप लगाया गया था, जबकि विजय अग्रवाल की 23 फरवरी, 2004 की शिकायत में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत गलत तरीके से रोकने और आपराधिक धमकी देने का आरोप लगाया गया था।

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26 जून, 2006 को, दिल्ली हाईकोर्ट के एक एकल न्यायाधीश ने दोनों याचिकाओं को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए दिल्ली पुलिस को मामले दर्ज करने और अपनी विशेष शाखा से जांच कराने का निर्देश दिया। हाईकोर्ट ने पाया कि प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध बनते हैं। दोनों अधिकारियों ने इस फैसले को चुनौती दी, लेकिन 2019 में एक खंडपीठ ने उनकी अपील को सुनवाई योग्य न मानते हुए खारिज कर दिया, जिसके बाद वे सुप्रीम कोर्ट पहुंचे।

पक्षकारों की दलीलें

अपीलकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता रंजीत कुमार ने तर्क दिया कि शिकायतों से कोई संज्ञेय अपराध नहीं बनता है और सीबीआई की एक प्रारंभिक जांच में पहले ही जांच के लिए कोई मामला नहीं पाया गया था। उन्होंने दलील दी कि हाईकोर्ट ने एक निश्चित निष्कर्ष दर्ज करके गलती की जो जांच अधिकारी को पूर्वाग्रह से ग्रस्त करेगा।

सीबीआई ने अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एस.वी. राजू के माध्यम से पक्षकार बनाए जाने की मांग करते हुए तर्क दिया कि शिकायतें सीआरपीसी की धारा 197 द्वारा वर्जित थीं, क्योंकि अधिकारियों की कार्रवाई उनके आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में की गई थी।

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न्यायालय का विश्लेषण और टिप्पणियां

सुप्रीम कोर्ट ने 12 साल से अधिक की देरी को माफ करते हुए मामले की सुनवाई गुण-दोष के आधार पर की। पीठ ने सीबीआई को पक्षकार बनाने से इनकार कर दिया, यह देखते हुए कि पीड़ित पक्ष व्यक्तिगत क्षमता में अधिकारी थे, न कि संस्था।

न्यायालय ने माना कि हाईकोर्ट का प्रथम दृष्टया मूल्यांकन सही था। इसने हाईकोर्ट के इस निष्कर्ष पर ध्यान दिया कि समय पर जब्ती मेमो के बिना दस्तावेजों की जब्ती केवल एक “प्रक्रियात्मक अनियमितता” नहीं थी, बल्कि एक ऐसा कार्य था जो दंडनीय प्रावधानों को आकर्षित करता है। इसने इस अवलोकन पर भी प्रकाश डाला कि एक अधिकारी ने एक शिकायतकर्ता को “जमानत आदेश का स्पष्ट उल्लंघन” करते हुए तलब किया था, जो “दुर्भावनापूर्ण और विद्वेषपूर्ण अधिकार के प्रयोग” का संकेत देता है।

सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि एक आंतरिक प्रारंभिक जांच निर्णायक नहीं है और यह “संवैधानिक न्यायालय की शक्ति को अपने निष्कर्ष दर्ज करने से बाहर नहीं कर सकती।” मिसालों का हवाला देते हुए, पीठ ने दोहराया कि यदि कोई शिकायत एक संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है, तो पुलिस एफआईआर दर्ज करने के लिए बाध्य है और वैकल्पिक उपचार हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र का उपयोग करने के लिए एक पूर्ण बाधा नहीं है।

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अंतिम निर्णय

एफआईआर दर्ज करने के मुख्य निर्देश को बरकरार रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश में संशोधन किया:

  1. जांच एजेंसी: जांच दिल्ली पुलिस द्वारा की जाएगी, लेकिन इसकी विशेष शाखा द्वारा नहीं। सहायक पुलिस आयुक्त के पद से नीचे का कोई अधिकारी जांच का नेतृत्व नहीं करेगा।
  2. प्रारंभिक जांच रिपोर्ट: जांच अधिकारी सीबीआई की आंतरिक रिपोर्ट को देख सकता है लेकिन इसे निर्णायक नहीं मानेगा।
  3. जांच का संचालन: जांच को शीघ्रता से, अधिमानतः तीन महीने के भीतर पूरा किया जाना चाहिए, और किसी भी न्यायिक टिप्पणी से अप्रभावित रहना चाहिए।
  4. अपीलकर्ताओं का सहयोग: अधिकारियों को जांच में सहयोग करना होगा। जांच अधिकारी द्वारा आवश्यक समझे जाने तक हिरासत में पूछताछ के अलावा कोई कठोर कदम, जिसमें गिरफ्तारी भी शामिल है, नहीं उठाया जाएगा।

इन संशोधनों के साथ, अपीलों का निपटारा कर दिया गया, जिससे दशकों पुराने आरोपों की औपचारिक पुलिस जांच का मार्ग प्रशस्त हो गया।

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