करीब एक दशक बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने गुरुवार को अभिनेता और फिल्मकार अमोल पालेकर की उस याचिका पर सुनवाई तय की, जिसमें उन्होंने नाटकों की स्क्रिप्ट को मंचन से पहले सेंसर करने के महाराष्ट्र राज्य प्रदर्शन जांच मंडल (Maharashtra State Performance Scrutiny Board) के नियमों को चुनौती दी है।
न्यायमूर्ति रियाज़ छागला और न्यायमूर्ति फरहान डुबाश की खंडपीठ ने इस मामले की सुनवाई 5 दिसंबर को तय की।
पालेकर की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अनिल अंतुरकर ने अदालत से 2016 में दाखिल की गई इस याचिका को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करने का आग्रह किया।
अंतुरकर ने कहा, “याचिकाकर्ता अब 85 वर्ष के हैं और चाहते हैं कि उनकी याचिका पर किसी न किसी रूप में निर्णय हो — चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक।”
उन्होंने कहा कि इस याचिका में मूल प्रश्न यह है कि क्या बॉम्बे पुलिस अधिनियम (Bombay Police Act) के तहत पुलिस को नाटकों और नाट्य प्रस्तुतियों पर पूर्व-सेंसरशिप लगाने का अधिकार है।
“हम ऐसे दौर में हैं जहां ओटीटी प्लेटफॉर्म पर किसी शो या सीरीज़ पर सेंसरशिप नहीं है,” अंतुरकर ने दलील दी।
हाईकोर्ट ने सितंबर 2017 में इस याचिका को स्वीकार किया था, लेकिन तब से अब तक इस पर अंतिम सुनवाई नहीं हो सकी थी।
अपनी याचिका में पालेकर ने कहा है कि नाटकों की स्क्रिप्ट पर मंचन से पहले अनिवार्य सेंसरशिप की व्यवस्था “मनमानी” है और यह भारतीय संविधान के तहत नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करती है।
बॉम्बे पुलिस अधिनियम की धारा 33(1)(wa) के तहत पुलिस आयुक्त या पुलिस अधीक्षक को सार्वजनिक मनोरंजन स्थलों के लाइसेंस और नियंत्रण से जुड़े नियम बनाने का अधिकार दिया गया है।
इन नियमों में यह प्रावधान किया गया है कि जन-व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता के हित में किसी नाटक या प्रदर्शन की स्क्रिप्ट का पूर्व-परीक्षण आवश्यक होगा, जिसके बाद ही प्रमाणपत्र जारी किया जा सकता है।
पालेकर की याचिका में कहा गया है, “यह पूर्व-सेंसरशिप कलात्मक स्वतंत्रता को सीमित करती है। इसके कारण कई ऐतिहासिक नाटकों का मूल रूप में मंचन नहीं हो सका।”
प्रसिद्ध अभिनेता और रंगकर्मी अमोल पालेकर लंबे समय से कलाकारों और नाटककारों की रचनात्मक स्वतंत्रता के पक्षधर रहे हैं।
उन्होंने 2016 में दाखिल इस याचिका में कहा कि यह औपनिवेशिक काल की सेंसरशिप व्यवस्था अब स्वतंत्र भारत में उचित नहीं है और इसे समाप्त किया जाना चाहिए।
हाईकोर्ट दिसंबर में यह तय करेगा कि क्या राज्य की यह थिएटर सेंसरशिप प्रणाली भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करती है या नहीं।




