बच्चे का हित मुस्लिम पर्सनल लॉ से ऊपर: बॉम्बे हाईकोर्ट ने 9 वर्षीय बच्चे की कस्टडी मां को सौंपी

बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने एक अहम फैसले में कहा है कि किसी नाबालिग बच्चे का कल्याण (वेलफेयर) किसी भी पर्सनल लॉ से ऊपर होता है। अदालत ने 9 साल के मुस्लिम बच्चे की कस्टडी उसकी मां को सौंप दी है और निचली अदालत का वह आदेश रद्द कर दिया है जिसमें पिता को कस्टडी दी गई थी।

न्यायमूर्ति शैलेश पी. ब्रह्मे ने यह फैसला एक प्रथम अपील पर सुनाया, जिसे मां ने दिसंबर 2023 में जिला जज, निलंगा द्वारा दिए गए फैसले को चुनौती देते हुए दायर किया था। निचली अदालत ने ‘गार्जियंस एंड वॉर्ड्स एक्ट, 1890’ की धारा 7 के तहत पिता को बच्चे की कस्टडी दी थी।

मामला संक्षेप में

विवादित दंपति, जो मुस्लिम धर्म से संबंधित हैं, का विवाह वर्ष 2010 में हुआ था और जून 2020 से वे अलग रह रहे हैं। तब से नाबालिग बेटा मां की देखरेख में कर्नाटक के बीदर स्थित उसके मायके में रह रहा है।

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पिता ने यह दावा करते हुए कस्टडी मांगी कि मां बिना कारण पति को छोड़कर चली गई और बच्चे की सेहत और पढ़ाई की उपेक्षा कर रही है। उन्होंने यह भी कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार, 7 वर्ष की उम्र के बाद पिता को बच्चे की कस्टडी मिलनी चाहिए।

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मां ने इसका विरोध किया और कहा कि उसे घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ा और वह खुद अपना कपड़ों का कारोबार चलाते हुए बेटे की शिक्षा और परवरिश का पूरा ध्यान रख रही है। साथ ही, उसने यह भी कहा कि पिता की आमदनी स्थिर नहीं है और उसके पास बच्चे की देखभाल की बेहतर व्यवस्था नहीं है।

हाईकोर्ट की मुख्य टिप्पणियां

अपील के लंबित रहने के दौरान हाईकोर्ट ने बच्चे की अंतरिम कस्टडी पिता को सौंपने के कई आदेश दिए, लेकिन मां ने विभिन्न कारणों से इसका पालन नहीं किया। इस वजह से पिता ने अदालत की अवमानना याचिका भी दाखिल की।

14 जुलाई 2025 को न्यायालय ने बच्चे से चेंबर में व्यक्तिगत रूप से बातचीत की। उस बातचीत का उल्लेख करते हुए न्यायमूर्ति ब्रह्मे ने लिखा:

“मैंने उस पर अनेक प्रश्न किए। मुझे वह बुद्धिमान एवं प्रतिभाशाली बालक लगा। मैंने यह भी पाया कि उस बालक का अपनी मां के साथ बहुत घनिष्ठ लगाव है। उसने स्पष्ट रूप से पिता के साथ जाने से इनकार किया।”

हालांकि अदालत ने यह स्वीकार किया कि मुस्लिम कानून के अनुसार सात वर्ष की उम्र के बाद कस्टडी पिता को मिलती है, लेकिन उसने यह भी कहा:

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“जब पर्सनल लॉ की तुलना बच्चे के आराम और कल्याण से की जाती है, तो बाद वाला पहलू वरीयता पाता है।”

मुस्लिम पर्सनल लॉ पर चर्चा

अदालत ने मुस्लिम कानून पर डॉ. ताहिर महमूद द्वारा लिखी पुस्तक The Muslim Law of India का संदर्भ दिया। न्यायालय ने ‘हिज़ानत’ (custody) और ‘विलायत-ए-नफ़्स’ (guardianship of person) के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए कहा:

“हिज़ानत केवल बच्चे की शारीरिक कस्टडी नहीं है, बल्कि उसमें बच्चे की परवरिश (परवरिश) भी शामिल है।”

हालांकि कानून यह कहता है कि मां को सात साल तक कस्टडी मिलती है और उसके बाद यह पिता को स्थानांतरित होती है, लेकिन अदालत ने कहा:

“अपीलकर्ता की हिज़ानत 7 वर्ष पूर्ण होने के पश्चात समाप्त होती है और प्रतिवादी को स्थानांतरित हो जाती है। यदि अपीलकर्ता ने प्रतिवादी को हिज़ानत से वंचित किया है… तो प्रतिवादी याचिका दाखिल करने के लिए अधिकृत है।”

फिर भी, न्यायालय ने यह भी माना कि पिता ने यह साबित नहीं किया कि उसके पास पर्याप्त वित्तीय साधन हैं या ऐसा वातावरण है जो बच्चे की परवरिश के लिए उपयुक्त हो:

“प्रतिवादी ने यह स्पष्ट रूप से प्रदर्शित नहीं किया कि उसके पास निश्चित आमदनी का स्रोत है, सिवाय उसके श्रम कार्य और पिता की पेंशन के।”

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अंतिम निष्कर्ष और आदेश

अदालत ने यह भी कहा कि अपीलकर्ता (मां) द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों में कुछ असंगतियाँ थीं, लेकिन इसके बावजूद:

“अपीलकर्ता की कमियाँ इतनी गंभीर नहीं हैं कि उन्हें बच्चे की कस्टडी से वंचित किया जाए।”

अंततः, अदालत ने कहा:

“मुझे ऐसा नहीं लगता कि नाबालिग के हित की बेहतर सुरक्षा प्रतिवादी के पास उसकी कस्टडी सौंपने में है। प्रतिवादी ने यह भी कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया कि उसकी वित्तीय स्थिति बेहतर है। उसके परिवार में कोई महिला सदस्य नहीं है।”

निचली अदालत का आदेश रद्द किया गया। मां को स्थायी रूप से कस्टडी दी गई। पिता को सीमित मुलाक़ात के अधिकार दिए गए:

  • लंबी छुट्टियों (दो सप्ताह से अधिक) में एक बार सात दिनों तक बेटे को अपने पास रखने का अधिकार
  • महीने में एक बार रविवार या त्योहार पर मुलाकात का अवसर, जो बीदर जिला अदालत के अधीक्षक की निगरानी में हो

अदालत की अवमानना याचिका अलग से निपटाई जाएगी।

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