बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने स्पष्ट किया है कि यदि एक मां अपने छोटे बच्चे की देखभाल के लिए नौकरानी नियुक्त करती है, तो केवल इस आधार पर उसकी हिरासत नहीं छीनी जा सकती। न्यायमूर्ति आर. एम. जोशी ने पिता द्वारा दायर उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें फैमिली कोर्ट द्वारा मां को अंतरिम अभिरक्षा देने के आदेश को चुनौती दी गई थी।
मामला पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता (पति) और प्रतिवादी (पत्नी) वैध रूप से विवाहित हैं और उनके पुत्र का जन्म 12 जून 2023 को हुआ था। वैवाहिक विवाद के बाद, मां ने गार्जियन एंड वॉर्ड्स एक्ट, 1890 के तहत स्थायी अभिरक्षा हेतु फैमिली कोर्ट में याचिका (D-3/2024) दायर की थी और अंतरिम अभिरक्षा की भी मांग की थी। फैमिली कोर्ट ने 30 जनवरी 2024 को आदेश पारित कर मां को 2 फरवरी 2024 से बच्चे की अंतरिम अभिरक्षा सौंपने का निर्देश दिया। पिता को महीने के पहले और तीसरे शनिवार को दोपहर 1 से 2 बजे तक फैमिली कोर्ट, पुणे के चिल्ड्रन कॉम्प्लेक्स में मुलाकात की अनुमति दी गई। साथ ही, याचिकाकर्ता को अभद्र भाषा के प्रयोग के लिए जिला विधिक सेवा प्राधिकरण, औरंगाबाद के पास ₹5,000 जमा करने का निर्देश दिया गया।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता की ओर से (पिता):
पिता की ओर से यह तर्क दिया गया कि मां प्रसवोत्तर अवसाद (postnatal depression) से पीड़ित हैं और इस कारण बच्चे की देखभाल करने में असमर्थ हैं। मेडिकल प्रमाणपत्रों का हवाला देते हुए कहा गया कि फैमिली कोर्ट ने अंतरिम चरण में ही अंतिम राहत प्रदान कर दी, जो कानूनन उचित नहीं है। इस हेतु स्टेट ऑफ यूपी बनाम राम सुखी देवी [(2005) 9 SCC 733] और बुखारी एजाजली मकदूमअली बनाम गुजरात राज्य [LAWS(GJH)-2013-2-22] का हवाला दिया गया।
प्रतिवादी की ओर से (मां):
प्रतिवादी की ओर से प्रस्तुत किया गया कि उनके असमर्थ होने का कोई ठोस साक्ष्य मौजूद नहीं है। सिविल एप्लिकेशन संख्या 1590/2024 के साथ दाखिल मेडिकल प्रमाणपत्र दर्शाता है कि मां स्वयं और अपने बच्चे की देखभाल करने में सक्षम हैं। उन्होंने यह भी कहा कि केवल अंतरिम राहत दी गई है, स्थायी अभिरक्षा का कोई आदेश नहीं हुआ है। रॉक्सन शर्मा बनाम अरुण शर्मा [(2015) 8 SCC 318], पुष्पा सिंह बनाम इंदरजीत सिंह [1990 SCC (Cri) 609], और स्वप्निल दिनेश अध्यापक बनाम मानसी अध्यापक [Criminal Revision Application No. 60/2021] पर भरोसा जताया गया।
न्यायालय का विश्लेषण
न्यायमूर्ति जोशी ने कहा:
“बच्चे का हित और कल्याण सर्वोपरि है।”
पुष्पा सिंह (supra) के निर्णय का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे की अभिरक्षा से मां को वंचित करने के लिए यह साबित करना पिता का दायित्व है कि मां बच्चे की देखभाल में असमर्थ है।
फैमिली कोर्ट द्वारा अवलोकन किया गया:
“उदासी/डिप्रेशन कोई गंभीर समस्या नहीं है… वह एक शिक्षित महिला हैं, गाड़ी चलाती हैं, सामान्य जीवन जी रही हैं।”
कोर्ट ने यह भी कहा:
“मां का दूध बच्चे के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। स्तनपान एक दुधपान कराने वाली मां का अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित अविच्छिन्न अधिकार है। इसी प्रकार, बच्चे का भी स्तनपान कराने का अधिकार है।”
कोर्ट ने यह उल्लेख किया कि 3 फरवरी 2024 को दिए गए मेडिकल प्रमाणपत्र में किसी प्रकार की असमर्थता का उल्लेख नहीं है। न्यायमूर्ति अरुण आर. पेडनेकर द्वारा 6 फरवरी 2024 को मां से बातचीत कर यह पाया गया कि उनके व्यवहार में किसी प्रकार की चिंता के लक्षण नहीं दिखे।
मां द्वारा नौकरानी रखने के विषय में याचिकाकर्ता की दलील को खारिज करते हुए हाईकोर्ट ने कहा:
“यदि यह स्वीकार भी किया जाए कि मां ने नौकरानी रखी है, तो छोटे बच्चे के लिए ऐसा करना असामान्य नहीं है। अतः यह तथ्य स्वयं में अभिरक्षा आदेश में हस्तक्षेप का आधार नहीं बन सकता।”
निर्णय
न्यायालय ने कहा कि फैमिली कोर्ट ने केवल अंतरिम अभिरक्षा दी है, स्थायी नहीं।
“प्रतिवादी को बच्चे की स्थायी अभिरक्षा देने का कोई आदेश पारित नहीं किया गया है।”
याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत उत्तर में महिला के प्रति अभद्र भाषा के प्रयोग को लेकर ₹5,000 का जुर्माना उचित माना गया। फैमिली कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी Combating Gender Stereotypes Handbook का हवाला देते हुए कहा:
“कानूनी याचिकाओं में इस प्रकार की अपमानजनक भाषा का प्रयोग अनुचित है और यह न्याय प्रक्रिया की गरिमा को ठेस पहुंचाता है।”
अंततः, न्यायमूर्ति आर. एम. जोशी ने कहा कि याचिकाकर्ता कोई ऐसा आधार प्रस्तुत नहीं कर सके जिससे फैमिली कोर्ट के आदेश में हस्तक्षेप किया जाए। याचिका और सभी लंबित आवेदन खारिज कर दिए गए।