बॉम्बे हाईकोर्ट ने टीजेएसबी सहकारी बैंक लिमिटेड (TJSB Sahakari Bank Ltd.) द्वारा दायर एक याचिका पर महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा है कि एक मध्यस्थ (Arbitrator) वादी द्वारा मांगी गई राशि से अधिक ब्याज प्रदान नहीं कर सकता। जस्टिस संदीप वी. मारणे की पीठ ने माना कि दावे से अधिक ब्याज देना ‘प्रत्यक्ष अवैधता’ (Patent Illegality) के दायरे में आता है। कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के गायत्री बालसामी फैसले का सहारा लेते हुए मध्यस्थता पंचाट (Arbitral Award) में दिए गए 17.5% ब्याज को घटाकर 13.5% कर दिया, लेकिन बैंक की ‘रेस ज्यूडिकाटा’ (Res Judicata) की दलील को खारिज करते हुए पंचाट के बाकी हिस्से को बरकरार रखा।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद टीजेएसबी सहकारी बैंक और मैसर्स ए. एस. कंस्ट्रक्शंस को दी गई वित्तीय सुविधाओं से जुड़ा है। प्रतिवादी, अमृतलाल पी. शाह, ने ऋण के लिए व्यक्तिगत गारंटी दी थी और सुरक्षा के तौर पर अपने फ्लैट, एलआईसी (LIC) पॉलिसियां और फिक्स्ड डिपॉजिट (FD) रसीदें बैंक के पास गिरवी रखी थीं।
वर्ष 2001 में, बैंक ने वसूली के लिए को-ऑपरेटिव कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। इसके जवाब में, अमृतलाल ने 2005 में अपनी सुरक्षा दस्तावेजों की वापसी और गारंटी से मुक्ति के लिए अलग से अर्जी दायर की। 2017 में को-ऑपरेटिव कोर्ट ने बैंक के पक्ष में फैसला सुनाया। हालांकि, बाद में अपीलीय अदालत ने गारंटी डिस्चार्ज के मुद्दे पर अमृतलाल के पक्ष में फैसला दिया। इसके बाद, अमृतलाल ने मल्टी-स्टेट को-ऑपरेटिव सोसाइटीज एक्ट, 2002 की धारा 84 के तहत आर्बिट्रेशन की कार्यवाही शुरू की, जिसमें उन्होंने अपनी एफडी और एलआईसी पॉलिसियों की राशि वापस मांगी।
2 मई 2024 को एकमात्र मध्यस्थ (Sole Arbitrator) ने फैसला सुनाया कि बैंक को एफडी के 4,05,558 रुपये और एलआईसी पॉलिसियों के 14,07,409 रुपये 17.5% ब्याज के साथ लौटाने होंगे। मध्यस्थ ने पाया कि बैंक द्वारा प्रस्तुत 7 अप्रैल 1998 का एक हस्तलिखित पत्र ‘दबाव’ (Coercion) में लिखवाया गया था।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता बैंक की ओर से अधिवक्ता शादाब जान ने तर्क दिया कि आर्बिट्रेटर का फैसला ‘रेस ज्यूडिकाटा’ (पूर्व न्याय) के सिद्धांत से बाधित है। उनका कहना था कि 7 अप्रैल 1998 के पत्र पर ‘दबाव’ का मुद्दा को-ऑपरेटिव कोर्ट पहले ही तय कर चुका था, इसलिए आर्बिट्रेटर इसे दोबारा नहीं सुन सकते थे। इसके अलावा, बैंक ने तर्क दिया कि जब वादी ने खुद केवल 13.5% ब्याज की मांग की थी, तो आर्बिट्रेटर द्वारा 17.5% ब्याज देना अवैध है।
दूसरी ओर, प्रतिवादी की ओर से अधिवक्ता शरद बंसल ने तर्क दिया कि को-ऑपरेटिव कोर्ट में ‘दबाव’ को लेकर कोई विशिष्ट मुद्दा (Issue) तय नहीं किया गया था, इसलिए ‘रेस ज्यूडिकाटा’ लागू नहीं होता। उन्होंने यह भी कहा कि बैंक ने आर्बिट्रेशन में अपने बचाव पक्ष के बयान (Statement of Defence) में इस दलील को उठाया ही नहीं था।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
रेस ज्यूडिकाटा (Res Judicata) पर: हाईकोर्ट ने बैंक की इस दलील को खारिज कर दिया कि यह मामला ‘रेस ज्यूडिकाटा’ से बाधित है। कोर्ट ने नोट किया कि बैंक ने आर्बिट्रेशन के दौरान अपने लिखित बयान में यह मुद्दा नहीं उठाया था और न ही को-ऑपरेटिव कोर्ट की पिछली कार्यवाहियों की प्लीडिंग्स (दलीलें) पेश की थीं।
जस्टिस मारणे ने सुप्रीम कोर्ट के नंद राम बनाम जगदीश प्रसाद मामले का हवाला देते हुए कहा कि किसी पिछले फैसले में दर्ज केवल ‘तर्क’ या ‘कारण’ (Reasoning) रेस ज्यूडिकाटा के रूप में कार्य नहीं करते, जब तक कि वह मुद्दा सीधे तौर पर विवाद का विषय न रहा हो। चूंकि को-ऑपरेटिव कोर्ट ने ‘दबाव’ के मुद्दे पर कोई विशिष्ट ‘issue’ फ्रेम नहीं किया था, इसलिए आर्बिट्रेटर द्वारा इस पर निर्णय लेना सही था।
दबाव (Coercion) के निष्कर्ष पर: कोर्ट ने आर्बिट्रेटर के इस निष्कर्ष को सही ठहराया कि 7 अप्रैल 1998 का पत्र दबाव में लिखवाया गया था। कोर्ट ने पाया कि प्रतिवादी के वकील ने 1998 में ही बैंक को नोटिस भेजकर दबाव का आरोप लगाया था, जिसका बैंक ने कभी खंडन नहीं किया। यह तथ्यात्मक निष्कर्ष साक्ष्यों पर आधारित था, जिसमें कोर्ट ने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।
ब्याज दर में संशोधन: हालांकि, कोर्ट ने ब्याज दर के मुद्दे पर बैंक की आपत्ति को स्वीकार कर लिया। आर्बिट्रेटर ने वादी द्वारा मांगे गए 13.5% के बजाय 17.5% ब्याज दिया था, यह तर्क देते हुए कि “न्याय की मांग है कि समान दर लागू हो”।
हाईकोर्ट ने इसे ‘पेटेंट इलीगलिटी’ (प्रत्यक्ष अवैधता) करार दिया। कोर्ट ने कहा:
“पार्टी द्वारा दावा की गई राशि से अधिक ब्याज देना स्पष्ट रूप से अवैधता है और यह भारतीय कानून की मौलिक नीति का उल्लंघन है।”
पुरे अवार्ड को रद्द करने के बजाय, कोर्ट ने संविधान पीठ के हालिया फैसले गायत्री बालसामी बनाम आईएसजी नोवासॉफ्ट टेक्नोलॉजीज लिमिटेड (2025) का पालन किया, जो अदालतों को आर्बिट्रेशन एक्ट की धारा 34 के तहत अवार्ड को संशोधित करने की सीमित शक्ति देता है। कोर्ट ने माना कि अवार्ड का खराब हिस्सा (ब्याज दर) अच्छे हिस्से से अलग किया जा सकता है।
परिणामस्वरूप, हाईकोर्ट ने आर्बिट्रेशन अवार्ड को आंशिक रूप से संशोधित करते हुए ब्याज दर को 17.5% से घटाकर 13.5% कर दिया, जबकि मूल राशि की वसूली के आदेश को बरकरार रखा।
केस डिटेल्स:
- केस टाइटल: टीजेएसबी सहकारी बैंक लिमिटेड बनाम अमृतलाल पी शाह
- केस नंबर: कमर्शियल आर्बिट्रेशन याचिका संख्या 370 ऑफ 2024
- कोरम: जस्टिस संदीप वी. मारणे
- साइटेशन: 2025:BHC-OS:25458

