उपभोक्ता फोरम में जाने के अधिकार पर मध्यस्थता की शर्त हावी नहीं हो सकती: सुप्रीम कोर्ट

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक विस्तृत और स्पष्ट निर्णय में यह दोहराया है कि किसी समझौते में मौजूद मध्यस्थता (Arbitration) की शर्त उपभोक्ता को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम (Consumer Protection Act) के तहत राहत पाने के वैधानिक अधिकार से वंचित नहीं कर सकती।

यह निर्णय M/s Citicorp Finance (India) Ltd. द्वारा दायर एक अपील पर आया, जिसमें नेशनल कंज़्यूमर डिस्प्यूट्स रिड्रेसल कमीशन (NCDRC) ने नवी मुंबई के निवासी श्री स्नेहाशीष नंदा को ₹13.2 लाख की राशि ब्याज सहित लौटाने का आदेश दिया था।

मामले की पृष्ठभूमि:

श्री नंदा ने नवी मुंबई में एक फ्लैट खरीदा था, जिस पर ICICI बैंक का हाउसिंग लोन था। वर्ष 2008 में श्री मुबारक वहीद पटेल ने ₹32 लाख में वह फ्लैट खरीदने का प्रस्ताव दिया और Citicorp Finance से ₹23.40 लाख का होम लोन स्वीकृत करवाया। इसमें से ₹17.8 लाख ICICI बैंक को श्री नंदा का लोन बंद करने के लिए दिए गए, लेकिन शेष ₹13.2 लाख की राशि कथित रूप से श्री नंदा को नहीं दी गई।

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इसी विवाद के कारण वर्ष 2018 में श्री नंदा ने उपभोक्ता शिकायत NCDRC में दर्ज की, जो पहले खारिज हो गई थी। बाद में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद मामला NCDRC को वापस भेजा गया, जिसने श्री नंदा के पक्ष में फैसला सुनाया। इस आदेश को Citicorp ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रमुख कानूनी प्रश्न:

  1. क्या श्री नंदा उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2(1)(d) के तहत ‘उपभोक्ता’ हैं?
  2. क्या वास्तव में कोई त्रिपक्षीय समझौता (Tripartite Agreement) मौजूद था, जिससे Citicorp को शेष राशि देने की बाध्यता थी?
  3. क्या 2018 में दर्ज की गई शिकायत समय सीमा से बाहर थी?
  4. क्या त्रिपक्षीय समझौते में मौजूद मध्यस्थता की शर्त के कारण NCDRC में मामला नहीं चल सकता था?
  5. क्या उधारकर्ता श्री पटेल की अनुपस्थिति से शिकायत दोषपूर्ण हो जाती है?

न्यायालय के अवलोकन और निष्कर्ष:

  • उपभोक्ता की स्थिति और अनुबंधिक संबंध:
    न्यायालय ने कहा कि श्री नंदा और Citicorp के बीच कोई सीधा अनुबंध नहीं था, इसलिए उन्हें उपभोक्ता नहीं माना जा सकता।
  • त्रिपक्षीय समझौते का अस्तित्व:
    न्यायालय ने पाया कि कोई संपूर्ण, हस्ताक्षरित और वैध त्रिपक्षीय समझौता प्रस्तुत नहीं किया गया। जो दस्तावेज़ दिखाया गया, वह अधूरा और अप्रमाणिक था।
  • समय-सीमा की अनुपालना:
    शिकायत कारण उत्पन्न होने के लगभग 10 साल बाद दर्ज की गई थी, और NCDRC ने देरी को लेकर कोई ठोस कारण या आदेश नहीं दिया।
  • जरूरी पक्ष की अनुपस्थिति:
    श्री पटेल, जिन्होंने लोन लिया और फ्लैट खरीदा, पूरे विवाद में केंद्रीय पक्ष थे। उनकी अनुपस्थिति से शिकायत प्रक्रिया में गंभीर त्रुटि थी।
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मध्यस्थता बनाम उपभोक्ता फोरम – न्यायालय की महत्वपूर्ण टिप्पणी:

हालांकि निर्णय तकनीकी आधारों पर Citicorp के पक्ष में गया, परंतु सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि उपभोक्ता अनुबंधों में मध्यस्थता की शर्त उपभोक्ता फोरम के अधिकार को समाप्त नहीं कर सकती।

न्यायालय ने M. हेमलता देवी बनाम बी. उदयस्री (2024) मामले का हवाला देते हुए कहा:

“उपभोक्ता विवाद सार्वजनिक मंचों के अधीन होते हैं, जो सार्वजनिक नीति का हिस्सा हैं… ऐसे विवाद मध्यस्थता योग्य नहीं होते जब तक कि दोनों पक्ष स्वेच्छा से मध्यस्थता के लिए सहमत न हों।”
“केवल उपभोक्ता को यह विकल्प है कि वह मध्यस्थता चुने, सेवा प्रदाता को नहीं।” (पैरा 24)

अंतिम निर्णय:

  • सुप्रीम कोर्ट ने Citicorp की अपील स्वीकार की।
  • NCDRC का आदेश पूरी तरह से रद्द कर दिया गया।
  • शिकायत को गैर-योग्य माना गया और श्री नंदा को उपभोक्ता नहीं माना गया।
  • किसी भी पक्ष को कोई लागत नहीं दी गई।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह निर्णय श्री नंदा को उधारकर्ता श्री पटेल के खिलाफ वैधानिक उपचार लेने से नहीं रोकता।

“यह निर्णय उधारकर्ता और उत्तरदाता के बीच कोई भी अन्य कार्यवाही, यदि हो, को प्रभावित नहीं करेगा।” (पैरा 28)

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