क्या केवल पृथक किए जा सकने योग्य पंचाट निर्णय में ही संशोधन संभव है? सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया

30 अप्रैल 2025 को गायत्री बालासामी बनाम आईएसजी नोवासॉफ्ट टेक्नोलॉजीज लिमिटेड [सिविल अपील सं. __ 2025 @ विशेष अनुमति याचिका (नागरिक) सं. 15336-15337/2021] में संविधान पीठ ने निर्णय देते हुए स्पष्ट किया कि पंचाट एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 और 37 के अंतर्गत अदालतें पंचाट निर्णय में संशोधन केवल तभी कर सकती हैं जब वह निर्णय पृथक किया जा सकने योग्य हो। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि संशोधन की शक्ति तभी लागू की जा सकती है जब निर्णय का अमान्य हिस्सा वैध हिस्से से कानूनी और व्यावहारिक रूप से पृथक किया जा सके।

पृष्ठभूमि

यह मामला संविधान पीठ को उन परस्पर विरोधी निर्णयों के चलते सौंपा गया था, जिनमें भारतीय अदालतों द्वारा पंचाट निर्णय में संशोधन की शक्ति को लेकर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण अपनाए गए थे। मूल प्रश्न यह था कि क्या धारा 34 में ऐसी कोई शक्ति है, और यदि है, तो क्या वह केवल सेवरेबल अवार्ड्स (पृथक किए जा सकने योग्य निर्णयों) पर ही लागू हो सकती है।

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कानूनी प्रश्न

संविधान पीठ के समक्ष मुख्य प्रश्न यह था कि क्या अदालतें केवल उसी स्थिति में पंचाट निर्णय में संशोधन कर सकती हैं जब निर्णय का अमान्य हिस्सा वैध हिस्से से अलग किया जा सके, बिना समग्र निर्णय की संरचना को क्षति पहुँचाए।

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सर्वोच्च न्यायालय के विश्लेषण एवं टिप्पणियाँ

1. धारा 34 के अंतर्गत निहित शक्ति:
कोर्ट ने कहा कि पूर्ण रूप से निरस्त करने की शक्ति में आंशिक रूप से निरस्त करने की शक्ति अंतर्निहित है। यह व्याख्या धारा 16 के अंतर्गत कोम्पेतेन्ज-कोम्पेतेन्ज (kompetenz-kompetenz) सिद्धांत के अनुरूप है।

“किसी पंचाट निर्णय को निरस्त करने की शक्ति में उसका आंशिक निरस्तीकरण निहित है… यह कहना कि यह शक्ति केवल पूर्ण निरस्तीकरण तक सीमित है, अनुचित होगा।”

2. पृथकता की शर्त:
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह शक्ति तब तक प्रयोग नहीं की जा सकती जब तक वैध और अमान्य भाग कानूनी या व्यावहारिक दृष्टि से परस्पर आश्रित या गुँथे हुए न हों।

“जब वैध और अमान्य हिस्से एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते, तो आंशिक निरस्तीकरण संभव नहीं होता।”

3. पूर्ववर्ती निर्णयों का संदर्भ:
कोर्ट ने प्रयवी काउंसिल के निर्णय प्रताप चमड़िया बनाम दुर्गा प्रसाद चमड़िया [AIR 1925 PC 293] का हवाला देते हुए कहा कि जब मुद्दे अविच्छेद्य रूप से जुड़े हों, तो पूरा निर्णय अनुपालन योग्य नहीं रह जाता।

4. व्यावहारिक प्रभाव:
कोर्ट ने कहा कि यदि पंचाट निर्णय का कोई हिस्सा स्पष्ट रूप से अमान्य है और वह स्वतंत्र रूप से अलग किया जा सकता है, तो केवल उस हिस्से को संशोधित करना ही तर्कसंगत और न्यायसंगत होगा।

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अंतिम निष्कर्ष

संविधान पीठ ने निर्णय में कहा:

“धारा 34(2)(क)(iv) के प्रावधान के अंतर्गत दी गई शक्ति स्पष्टीकरणात्मक है… omne majus continet in se minus सिद्धांत—अधिक शक्ति में अल्प शक्ति अंतर्निहित होती है—इस पर स्पष्ट रूप से लागू होता है।”

साथ ही, कोर्ट ने यह चेतावनी भी दी:

“हर पंचाट निर्णय को पृथक नहीं किया जा सकता… वैध और अमान्य हिस्से परस्पर आश्रित नहीं होने चाहिए।”

सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णायक रूप से स्पष्ट किया कि भारतीय अदालतें पंचाट निर्णयों में संशोधन केवल उसी स्थिति में कर सकती हैं जब निर्णय का अमान्य हिस्सा स्पष्ट रूप से वैध हिस्से से अलग किया जा सके। इस व्याख्या से न केवल पंचाट की स्वायत्तता का सम्मान होता है, बल्कि वैध निर्णय भागों को सुरक्षित रखते हुए अनावश्यक पुनः-पंचाट की आवश्यकता भी समाप्त होती है।

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