मध्यस्थता निर्णय (Arbitral Award) देने में देरी उसे रद्द करने का एकमात्र आधार नहीं; सुप्रीम कोर्ट ने कहा, प्रतिकूल प्रभाव या स्पष्ट अवैधता दिखाना होगा

सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि मध्यस्थता निर्णय (arbitral award) की घोषणा में “अनावश्यक और अस्पष्टीकृत देरी” अपने आप में उसे रद्द करने का पर्याप्त आधार नहीं है। कोर्ट ने 31 अक्टूबर 2025 के अपने फैसले में कहा कि यह दिखाना होगा कि देरी का अंतिम निर्णय पर “प्रतिकूल प्रभाव” पड़ा, जिससे वह विकृत (perverse) या “स्पष्ट रूप से अवैध” (patently illegal) हो गया।

इसी सिद्धांत को लागू करते हुए, एम/एस लैंकॉर होल्डिंग्स लिमिटेड बनाम प्रेम कुमार मेनन व अन्य (2025 INSC 1277) मामले में, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने एक मध्यस्थता निर्णय को रद्द कर दिया। इस मामले में, निर्णय सुनाने में लगभग चार साल की देरी हुई, जिसे कोर्ट ने “निष्प्रभावी और व्यर्थ” (ineffective and futile) और “अव्यवहारिक” (unworkable) निर्णय का सीधा कारण माना, जो “भारत की सार्वजनिक नीति के खिलाफ” था।

कोर्ट ने 16 साल पुराने इस विवाद को अंतिम रूप से हल करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल किया, जिसे उसने “पूर्ण न्याय” करने के लिए आवश्यक माना।

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विवाद की पृष्ठभूमि

यह मामला 17 दिसंबर 2004 के एक संयुक्त विकास समझौते (JDA) से शुरू हुआ था, जो उत्तरदाताओं (जमींदारों) और अपीलकर्ता एम/एस लैंकॉर होल्डिंग्स लिमिटेड (डेवलपर) के बीच चेन्नई की एक 1.116 एकड़ संपत्ति के लिए हुआ था। JDA के तहत, डेवलपर को अपनी लागत पर एक इमारत बनानी थी, 50% निर्मित क्षेत्र जमींदारों को देना था और बदले में 50% निर्मित क्षेत्र (जमीन में 50% अविभाजित हिस्से के साथ) प्राप्त करना था। डेवलपर ने ₹6.82 करोड़ की रिफंडेबल सिक्योरिटी डिपॉजिट जमा की थी।

यह जमा राशि “हैंडओवर डेट” के 15 दिन बाद वापस की जानी थी। JDA के क्लॉज 6 में इस तारीख को तीन शर्तों पर परिभाषित किया गया था:

  1. डेवलपर निर्माण पूरा करे और “प्रोजेक्ट आर्किटेक्ट” जमींदारों को प्रमाणित करे कि इमारत पूरी हो गई है और रहने के लिए उपयुक्त है।
  2. डेवलपर ने चेन्नई मेट्रोपॉलिटन डेवलपमेंट अथॉरिटी (CMDA) से “कम्प्लीशन सर्टिफिकेट के लिए आवेदन” कर दिया हो।
  3. डेवलपर पहली दो शर्तों के बाद लिखित में कब्जा देने की पेशकश करे।
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एक दूसरा पावर-ऑफ-अटॉर्नी (POA), जो डेवलपर को अपना 50% हिस्सा बेचने का अधिकार देता, HDFCL के पास एस्क्रो में रखा गया था, जिसे केवल हैंडओवर डेट पर ही जारी किया जाना था।

विवाद और मध्यस्थता

विवाद तब शुरू हुआ जब डेवलपर ने 10 अक्टूबर 2008 के आर्किटेक्ट सर्टिफिकेट और 29 जुलाई 2008 के CMDA आवेदन का हवाला देते हुए 20 अक्टूबर 2008 को हैंडओवर डेट का दावा किया और अपनी जमा राशि वापस मांगी। जमींदारों ने यह कहते हुए इसका विरोध किया कि इमारत अधूरी थी।

19 दिसंबर 2008 को, डेवलपर ने एस्क्रो में रखे मूल POA की एक “फोटोकॉपी” का उपयोग करके, अपने ही पक्ष में पांच पंजीकृत सेल डीड (बिक्री पत्र) निष्पादित कर दिए।

मामला मध्यस्थता में गया, जिसमें जस्टिस के.पी. शिवसुब्रमण्यम (सेवानिवृत्त) एकमात्र मध्यस्थ (Arbitrator) नियुक्त हुए। डेवलपर ने अपनी शेष ₹4.82 करोड़ जमा राशि मांगी, जबकि जमींदारों ने पांचों सेल डीड को “अवैध, शून्य और गैर-प्रभावी” (illegal, void ab initio and non-est) घोषित करने की मांग की।

मध्यस्थता निर्णय और देरी

मध्यस्थ ने 28 जुलाई 2012 को अवार्ड सुरक्षित रखा, लेकिन इसे 16 मार्च 2016 को, “लगभग तीन साल और आठ महीने बाद” सुनाया।

मध्यस्थ ने जमींदारों के पक्ष में फैसला सुनाते हुए आर्किटेक्ट के प्रमाण पत्र को “पूरी तरह से अमान्य” और सेल डीड को अवैध ठहराया। हालांकि, मध्यस्थ कोई अंतिम समाधान देने में विफल रहे। उन्होंने कहा कि स्थिति “बहुत जटिल” है और “उचित दलीलों और सबूतों के अभाव में” वह मुआवजे की राशि तय नहीं कर सकते।

अंतिम निर्णय ने सेल डीड और आर्किटेक्ट प्रमाणपत्र को अवैध घोषित कर दिया, लेकिन सभी प्रमुख मौद्रिक दावों और प्रति-दावों को “खुला छोड़ दिया” और पार्टियों को “कानून के अनुसार उचित आगे की कार्यवाही” करने का निर्देश दिया। यह तब किया गया जब 2010 का एक अंतरिम आदेश पहले ही पार्टियों की स्थिति को अपरिवर्तनीय रूप से बदल चुका था।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

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देरी पर: सुप्रीम कोर्ट ने कानून के पहले सवाल (देरी) को सीधे संबोधित किया। कोर्ट ने कहा, “मध्यस्थता निर्णय देने में देरी, अपने आप में, उस निर्णय को रद्द करने के लिए पर्याप्त नहीं है।”

कोर्ट ने परीक्षण (test) स्पष्ट किया: “हालांकि, ऐसे हर मामले को उसके अपने व्यक्तिगत तथ्यों पर जांचना होगा ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या उस देरी का अंतिम निर्णय पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा… यह केवल तब है जब अनावश्यक देरी का प्रभाव… स्पष्ट है और निष्कर्षों पर प्रतिकूल रूप से प्रतिबिंबित होता है, ऐसी देरी को… भारत की सार्वजनिक नीति के खिलाफ माना जा सकता है…”

इस विशिष्ट मामले में, कोर्ट ने पाया कि देरी का ऐसा प्रभाव पड़ा था। कोर्ट ने कहा कि “अवार्ड में बार-बार दोहराव और मध्यस्थ का असमंजस… स्पष्ट रूप से प्रकट करता है कि उनकी ओर से हुई देरी ने उनकी निर्णयहीनता में योगदान दिया।” कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि इस “अस्पष्टीकृत और व्यर्थ देरी” के परिणामस्वरूप एक “निष्प्रभावी और व्यर्थ अवार्ड” आया जो “भारत की सार्वजनिक नीति के खिलाफ” था।

निर्णय की विकृति और अव्यवहारिकता पर: कोर्ट ने JDA के क्लॉज 6 को “पूरी तरह से गलत समझने और गलत व्याख्या करने” के लिए निर्णय को “पूरी तरह से विकृत” (utterly perverse) पाया। कोर्ट ने कहा कि मध्यस्थ ने विधिवत जारी आर्किटेक्ट प्रमाणपत्र पर सवाल उठाकर गलती की, क्योंकि क्लॉज 6(a) के लिए केवल इसकी आवश्यकता थी।

कोर्ट ने मध्यस्थ के इस निष्कर्ष को कि बिजली और पानी के कनेक्शन प्रमाणीकरण के लिए जरूरी थे, “गाड़ी को घोड़े के आगे रखने” (putting the cart before the horse) जैसा माना, क्योंकि क्लॉज 6(b) के लिए केवल CMDA प्रमाणपत्र के लिए आवेदन की आवश्यकता थी, जो कनेक्शन प्राप्त करने से पहले आता है।

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इसके अलावा, अवार्ड को “अव्यवहारिक” (unworkable) माना गया क्योंकि मध्यस्थ “विवादों को हल करने में विफल रहे” और डेवलपर को “खाली हाथ” छोड़ दिया, जबकि जमींदार “बिना किसी लागत के” अपने हिस्से का आनंद ले रहे थे।

अनुच्छेद 142 के तहत अंतिम निर्णय

यह देखते हुए कि 16 वर्षों के बाद पार्टियों को नए सिरे से मुकदमेबाजी के लिए भेजना “न्याय का उपहास” (travesty of justice) होगा, कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्ति का इस्तेमाल किया।

कोर्ट ने माना कि डेवलपर द्वारा POA की फोटोकॉपी का उपयोग करना “स्पष्ट अवैधता” (patent illegality) थी और इसके लिए उसे “दंडित किया जाना चाहिए।”

“पूर्ण न्याय” करने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया:

  1. 19 दिसंबर 2008 की पांचों सेल डीड को “इस स्तर पर वैध और कानूनी” माना जाता है।
  2. अपीलकर्ता (डेवलपर) को उत्तरदाताओं (जमींदारों) को कुल ₹10 करोड़ का भुगतान करना होगा।
  3. इस राशि में “₹6.82 करोड़ की सुरक्षा जमा राशि की जब्ती” और उनके द्वारा किए गए कार्यों के मुआवजे के लिए “₹3.18 करोड़ की अतिरिक्त राशि” शामिल है।
  4. यह भुगतान तीन महीने के भीतर करना होगा।
  5. पूर्ण भुगतान के बाद, डेवलपर “इमारत में अपने 50% हिस्से का कब्जा पाने का हकदार” होगा।

इन शर्तों के साथ अपीलों को स्वीकार कर लिया गया।

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