वकील केवल अग्रिम जमानत आवेदनों में विशेष रूप से प्रस्तुत तथ्यों पर बहस कर सकते हैं: इलाहाबाद हाईकोर्ट

हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रक्रियात्मक नियमों के सख्त पालन के महत्व को रेखांकित करते हुए एक महत्वपूर्ण गबन मामले में फंसे बैंक के मुख्य कैशियर मनीष कुमार की अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी। न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की कि वकील केवल उन तथ्यों पर बहस कर सकते हैं जो अग्रिम जमानत आवेदन में विशेष रूप से प्रस्तुत किए गए हैं, जो एक मिसाल कायम करता है जो ऐसे मामलों में सटीक और अच्छी तरह से प्रलेखित दलीलों के महत्व पर जोर देता है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला मनीष कुमार से जुड़ा है, जो उत्तर प्रदेश के झांसी में स्थित एक बैंक में मुख्य कैशियर के रूप में कार्यरत हैं। विवाद तब शुरू हुआ जब सहायक कोषाध्यक्ष अधिकारी सुनील कुमार तिवारी ने बैंक में 39,34,489 रुपये की बड़ी राशि जमा की। हालांकि, मनीष कुमार द्वारा प्रदान की गई रसीद में केवल 11,34,489 रुपये दिखाई दिए, जिससे 28 लाख रुपये की विसंगति हुई। इस घटना के कारण प्रेम नगर पुलिस स्टेशन, झांसी में भारतीय दंड संहिता की धारा 408 और 409 के तहत एक प्राथमिकी (केस क्राइम नंबर 278/2024) दर्ज की गई।

मनीष कुमार ने अपनी अग्रिम जमानत याचिका में तर्क दिया कि शेष 28 लाख रुपये की राशि सुरक्षा गार्ड योगेंद्र सिंह द्वारा छीन ली गई थी और यह लेनदेन बैंक के सीसीटीवी में कैद हो गया था। हालांकि, यह दावा अदालत की जांच का केंद्र बिंदु बन गया।

शामिल कानूनी मुद्दे

1. अग्रिम जमानत आवेदनों में तर्कों का दायरा: मुख्य कानूनी मुद्दा इस बात के इर्द-गिर्द घूमता है कि क्या वकील बहस के दौरान नए तथ्य पेश कर सकते हैं जिनका अग्रिम जमानत आवेदन में स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया था। यह बिंदु तब महत्वपूर्ण हो गया जब मनीष कुमार के वकील ने सुनवाई के दौरान सीसीटीवी फुटेज का हवाला दिया, जिसे शुरू में दलीलों में शामिल नहीं किया गया था।

2. अग्रिम जमानत देने की शर्तें: अदालत ने यह भी मूल्यांकन किया कि क्या आवेदक ने अग्रिम जमानत के लिए अर्हता प्राप्त करने के लिए पर्याप्त आधार प्रदर्शित किए हैं। कथित अपराध की गंभीरता और आरोपों की प्रकृति को देखते हुए, अदालत को यह निर्धारित करना था कि क्या मनीष कुमार का मामला ऐसी राहत के लिए आवश्यक कठोर आवश्यकताओं को पूरा करता है।

अदालत का निर्णय और अवलोकन

न्यायमूर्ति विक्रम डी. चौहान द्वारा दिया गया निर्णय अपने रुख में स्पष्ट था। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि “कोई वकील केवल उसी तथ्य पर बहस कर सकता है, जिसका अग्रिम जमानत आवेदन में विशेष रूप से तर्क किया गया हो। कोई वकील ऐसे तथ्य के बयान देने के लिए अधिकृत नहीं है, जिसका विशेष रूप से तर्क नहीं किया गया हो।” यह अवलोकन महत्वपूर्ण था, क्योंकि इसने कानूनी दलीलों में, विशेष रूप से अग्रिम जमानत आवेदनों में, गहन और सटीक दस्तावेज़ीकरण के महत्व को पुष्ट किया।

अदालत ने आगे कहा कि मनीष कुमार के दावों का समर्थन करने के लिए कोई भी भौतिक साक्ष्य, जैसे कि कथित सीसीटीवी फुटेज या वाउचर, पेश नहीं किए गए। अदालत ने कहा, “इस अदालत के समक्ष न तो कोई वाउचर पेश किया गया है और न ही आवेदक की बेगुनाही को इंगित करने के लिए कोई अन्य सामग्री पेश की गई है।” सहायक साक्ष्य की इस कमी ने मनीष कुमार के आवेदन को काफी कमजोर कर दिया।

निष्कर्ष में, न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि अग्रिम जमानत देने की शक्ति असाधारण है और इसका प्रयोग केवल असाधारण मामलों में ही किया जाना चाहिए। न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि मनीष कुमार के खिलाफ आरोप गंभीर थे और अग्रिम जमानत देने को उचित ठहराने के लिए कोई असाधारण परिस्थितियाँ प्रदर्शित नहीं की गईं। निर्णय में कहा गया कि “वर्तमान मामले में अभियुक्त को अग्रिम जमानत देने से मुखबिर/शिकायतकर्ता/पीड़ित के अधिकारों और हितों की सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।”

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अंततः, अग्रिम जमानत आवेदन को खारिज कर दिया गया, जिसमें न्यायालय ने घोषणा की कि “कोई व्यक्ति जिसने अपराध किया है, वह अग्रिम जमानत के विवेकाधीन क्षेत्राधिकार के अनुदान का हकदार नहीं है, जब तक कि यह साबित न हो जाए कि अभियुक्त को झूठा फंसाया गया है या वह स्वतंत्रता के संरक्षण का हकदार है।”

इस निर्णय के लिए केस नंबर क्रिमिनल मिस्क एंटीसिपेटरी बेल एप्लीकेशन यू/एस 438 सीआरपीसी नंबर – 6730 ऑफ 2024 है, जिसमें आवेदक मनीष कुमार है और यूपी राज्य विपक्षी पक्ष है। मनीष कुमार की ओर से अधिवक्ता हनुमान प्रसाद कुशवाह थे, जबकि राज्य की ओर से सरकारी अधिवक्ता (जी.ए.) ने पैरवी की। यह आदेश 13 अगस्त, 2024 को पारित किया गया।

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