संशोधित याचिकाओं का विकल्प नहीं हैं बाद की दलीलें: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने 5 साल बाद रुख बदलने की अनुमति देने से किया इनकार

एक महत्वपूर्ण निर्णय में, आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने दीवानी याचिकाओं से संबंधित सिद्धांतों को दोहराते हुए सिविल रिवीजन पिटीशन संख्या 276/2025 को खारिज कर दिया। यह याचिका मोलेटी वीरा कुमार स्वामी द्वारा दायर की गई थी। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “बाद की दलीलें संशोधन का विकल्प नहीं हो सकतीं,” विशेष रूप से तब जब वे एक विरोधाभासी रुख प्रस्तुत करती हैं।

मामला क्या है?

यह विवाद ओ.एस. संख्या 53/2017 से जुड़ा है, जिसे मड्डाला वेंकटेश्वरा पेंटय्यनायडू ने X अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, अनकापल्ली के समक्ष दायर किया था। वादी ने ₹64,54,933 की वसूली की मांग की थी, जिस पर 24% वार्षिक ब्याज की भी मांग थी। यह दावा 8 दिसंबर 2014 की दो प्रोमिसरी नोट्स पर आधारित था।

प्रतिवादी मोलेटी वीरा कुमार स्वामी ने जून 2018 में अपनी मूल लिखित बयान में इन प्रोमिसरी नोट्स को निष्पादित करने से साफ इनकार किया और कहा कि उन्होंने कोई ऋण नहीं लिया।

हालांकि, 2024 में जब वादी की जिरह की बारी आई, तो प्रतिवादी ने ऑर्डर 8 रूल 9 व धारा 151 सीपीसी के तहत आई.ए. संख्या 804/2024 के माध्यम से एक अतिरिक्त लिखित बयान दाखिल करने की अनुमति मांगी। इस नये बयान में उन्होंने यह नई बात जोड़ी कि उनके हस्ताक्षर और स्टांप जबरदस्ती और धोखाधड़ी से लिए गए थे — यानी अब दबाव और जालसाजी का आरोप लगाया गया।

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ट्रायल कोर्ट ने 12 दिसंबर 2024 को यह आवेदन खारिज कर दिया, जिसके विरुद्ध यह सिविल रिवीजन दायर की गई थी।

मुख्य तर्क और कानूनी प्रश्न

याचिकाकर्ता की ओर से श्री नरसिम्हा राव गुडिसेवा ने दलील दी कि यह अतिरिक्त लिखित बयान आवश्यक था, क्योंकि इससे पहले दिए गए तथ्यों को स्पष्ट किया जा रहा था। उन्होंने LIC बनाम संजीव बिल्डर्स प्रा. लि. [(2018) 11 SCC 722] मामले का हवाला दिया और कहा कि अदालतों के पास कभी भी ऐसी दलीलों को स्वीकार करने का अधिकार होता है।

हाईकोर्ट के समक्ष प्रमुख प्रश्न थे:

  1. क्या प्रतिवादी ऑर्डर 8 रूल 9 सीपीसी के तहत एक नया और मूल बयान से विरोधाभासी रुख पेश कर सकता है?
  2. क्या 5 साल की देरी को स्वीकार किया जा सकता है?
  3. क्या यह नई दलील वास्तव में एक संशोधन के बराबर नहीं है?
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हाईकोर्ट की टिप्पणियाँ

न्यायमूर्ति रवि नाथ तिलहरी ने ऑर्डर 8 रूल 9 सीपीसी के तहत बाद की दलीलों से संबंधित कानून का विस्तार से विश्लेषण किया। उन्होंने कई प्रमुख मामलों का हवाला दिया:

  • नूरुल हसन बनाम नहकपम इंद्रजीत सिंह [(2024) 9 SCC 353]
  • राजस्थान राज्य बनाम मोहम्मद इकबाल [1998 SCC OnLine Raj 46]
  • मुकुट राज लक्ष्मी बनाम डॉ. जितेन्द्र सिंह [2015 SCC OnLine Raj 7054]
  • नोवार्टिस एजी बनाम नेटको फार्मा लि. [2025 SCC OnLine Del 27]

उन्होंने कहा:

प्रतिक्रिया (Replication) संशोधन का विकल्प नहीं होती। कोई नया आधार या मूल याचिका से विरोधी दलील की अनुमति नहीं दी जा सकती।

जस्टिस तिलहरी ने कहा कि प्रतिवादी ने पहले साफ-साफ प्रोमिसरी नोट्स के अस्तित्व से इनकार किया था, लेकिन अब अतिरिक्त बयान में उन्होंने जबरदस्ती हस्ताक्षर लेने का आरोप लगाया — जो पूरी तरह एक नया और विरोधाभासी मामला प्रस्तुत करता है।

उन्होंने स्पष्ट किया:

यह नहीं कहा जा सकता कि बाद की दलील पहले दी गई बात की व्याख्या है। यह वास्तव में लिखित बयान में संशोधन के समान है, जिसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।

कोर्ट ने देरी के आधार पर भी याचिका खारिज कर दी:

यह आवेदन मूल लिखित बयान के पाँच साल और मुकदमा दाखिल होने के लगभग सात साल बाद दायर किया गया था — यह अत्यधिक विलंबित था।

जस्टिस तिलहरी ने यह भी कहा कि भले ही कोर्ट अपने विवेक से अतिरिक्त दलीलें स्वीकार कर सकती है, लेकिन कोई भी पक्ष इसे अधिकार के रूप में नहीं मांग सकता — वह भी अत्यधिक देरी के बाद नहीं।

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हाईकोर्ट ने सिविल रिवीजन पिटीशन को खारिज कर दिया और ट्रायल कोर्ट द्वारा अतिरिक्त लिखित बयान दाखिल करने की अनुमति न देने को सही ठहराया। कोर्ट ने कोई लागत (cost) नहीं लगाई।

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