सेवा कानून पर एक अहम फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि राज्य सरकार 7 साल बाद कर्मचारियों की वरिष्ठता में बदलाव नहीं कर सकती, खासकर तब जब यह मुद्दा बार-बार विचार के बाद तय हो चुका हो। मुख्य न्यायाधीश अरुण भंसाली और न्यायमूर्ति जसप्रीत सिंह की खंडपीठ ने उत्तर प्रदेश राज्य और प्रत्यक्ष भर्ती किए गए कुछ कर्मचारियों की दो विशेष अपीलों को खारिज करते हुए एकल न्यायाधीश के उस आदेश को बरकरार रखा, जिसमें सचिवालय कर्मचारियों की पदोन्नति की प्रभावी तिथि बदलने की राज्य की कोशिश को रद्द कर दिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला सचिवालय, प्रशासनिक विभाग में प्रत्यक्ष भर्ती और प्रोन्नत कर्मचारियों के बीच वरिष्ठता विवाद और पूर्व प्रभावी (एंटी-डेटेड) पदोन्नति की वैधता को लेकर था। प्रोन्नत रिव्यू ऑफिसर्स ने दो रिट याचिकाएं दायर की थीं। ये कर्मचारी 1990 में जूनियर ग्रेड क्लर्क के रूप में नियुक्त हुए थे, 2005 में असिस्टेंट रिव्यू ऑफिसर बने, और चयन वर्ष 2015-16 के लिए रिव्यू ऑफिसर के पद पर प्रोन्नत हुए।
30 जून 2016 को विभागीय चयन समिति (डीपीसी) की बैठक हुई। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की स्वीकृति के बाद 13 जुलाई 2016 को पदोन्नति आदेश जारी हुए, लेकिन उन्हें 30 जून 2016 से प्रभावी माना गया।

प्रत्यक्ष भर्ती के 2013 बैच के कर्मचारियों ने 23 जुलाई 2016 को जारी अस्थायी वरिष्ठता सूची पर आपत्ति उठाई। तीन-सदस्यीय समिति ने आपत्तियों को खारिज कर 5 अगस्त 2016 को अंतिम वरिष्ठता सूची प्रकाशित की। 2018 और 2022 में यह मुद्दा फिर उठा, लेकिन दोनों बार गठित समितियों ने प्रोन्नत कर्मचारियों की 30 जून 2016 की नियुक्ति तिथि को सही ठहराया। इन फैसलों को कभी न्यायिक मंच पर चुनौती नहीं दी गई।
हालांकि, अचानक 14 जुलाई 2023 को राज्य ने प्रोन्नत कर्मचारियों को कारण बताओ नोटिस जारी कर कहा कि पूर्व प्रभावी पदोन्नति “त्रुटि” थी। कर्मचारियों के विस्तार से जवाब देने के बावजूद 9 अगस्त 2023 को राज्य ने उनके प्रमोशन की प्रभावी तिथि 13 जुलाई 2016 कर दी। इसके बाद 6 सितंबर 2023 को संशोधित वरिष्ठता सूची और परिणामी आदेश जारी किए गए, जिससे उनकी वरिष्ठता घट गई।
प्रोन्नत कर्मचारियों ने इन आदेशों को चुनौती दी, और एकल न्यायाधीश ने 24 फरवरी 2025 को राज्य के आदेशों को रद्द कर दिया। इसके खिलाफ राज्य और दो प्रत्यक्ष भर्ती कर्मचारियों ने विशेष अपीलें दाखिल कीं।
पक्षकारों की दलीलें
राज्य की ओर से अपर महाधिवक्ता कुलदीप पति त्रिपाठी ने दलील दी कि एकल न्यायाधीश ने सेवा नियमों की अनदेखी की, जो उनके अनुसार पूर्व प्रभावी पदोन्नति की अनुमति नहीं देते। उनका कहना था कि वरिष्ठता पदोन्नति आदेश की तिथि से ही मानी जानी चाहिए।
प्रत्यक्ष भर्ती अपीलकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता एच.जी.एस. परिहार ने राज्य के तर्कों का समर्थन करते हुए कहा कि उनके मुवक्किलों को एकल न्यायाधीश के समक्ष सुनवाई का उचित अवसर नहीं मिला।
प्रोन्नत कर्मचारियों की ओर से गौरव मेहरोत्रा ने तर्क दिया कि वरिष्ठता का मुद्दा 2016 में तय हो चुका था और दो बार इसकी पुष्टि हो चुकी थी। उन्होंने कहा कि 7 साल बाद इस तय स्थिति को उलटने की राज्य की कोशिश मनमानी थी। साथ ही, उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश सरकारी सेवक वरिष्ठता नियम, 1991 में स्पष्ट रूप से पूर्व-प्रभावी वरिष्ठता देने का प्रावधान है।
कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
खंडपीठ ने अपीलकर्ताओं के तर्कों पर विस्तार से विचार किया।
सुनवाई का अवसर न मिलने पर: कोर्ट ने पाया कि प्रत्यक्ष भर्ती कर्मचारियों को सुनवाई का मौका मिला था, क्योंकि वे रिट याचिका में निजी प्रतिवादी के रूप में पक्षकार थे और जवाब दाखिल करने का पर्याप्त अवसर था, जिसे उन्होंने नहीं अपनाया। कोर्ट ने अजय कुमार शुक्ल बनाम अरविंद राय मामले का हवाला देते हुए कहा, “सेवा मामलों में जब बड़ी संख्या में लोग प्रभावित होते हैं, तो कुछ को प्रतिनिधि क्षमता में पक्षकार बनाना पर्याप्त होता है।”
पूर्व-प्रभावी पदोन्नति की वैधता पर: कोर्ट ने यूपी सरकारी सेवक वरिष्ठता नियम, 1991 के रूल 8(1) के पहले प्रोविजो पर ध्यान दिया, जिसमें कहा गया है, “यदि नियुक्ति आदेश में कोई पिछली तिथि निर्दिष्ट की गई हो, जिससे कोई व्यक्ति स्थायी रूप से नियुक्त हुआ माना जाए, तो वह तिथि स्थायी नियुक्ति आदेश की तिथि मानी जाएगी…” कोर्ट ने एस. सुंदरम पिल्लै बनाम वी.आर. पट्टाभिरामन जैसे मामलों से व्याख्या के सिद्धांतों का हवाला देते हुए कहा कि प्रोविजो सामान्य नियम का अपवाद होता है और इससे स्पष्ट होता है कि पिछली तिथि से पदोन्नति देना नियोक्ता के अधिकार में है। कोर्ट ने टिप्पणी की, “यदि प्रमोशन केवल आदेश की तिथि से ही प्रभावी होते, तो प्रोविजो डालने का कोई मतलब नहीं था।”
राज्य के आचरण पर: कोर्ट ने राज्य की कार्रवाई को मनमाना पाया। कोर्ट ने 27 जून 2016 के उस पत्र को महत्वपूर्ण माना, जिसमें राज्य ने लोक सेवा आयोग से 30.06.2016 से पहले प्रोन्नति प्रक्रिया पूरी करने का अनुरोध किया था। कोर्ट ने पूछा, “अब ऐसा कौन-सा तथ्य सामने आया, जिसने राज्य को 7 साल बाद अपना रुख बदलने के लिए मजबूर कर दिया और जो पहले सही था, वह अचानक गलत कैसे हो गया?”
यद्यपि एकल न्यायाधीश ने रेस-जुडिकेटा के सिद्धांत का हवाला दिया था, खंडपीठ ने इसे प्रशासनिक आदेशों के संदर्भ में ‘चर्चा योग्य’ माना, लेकिन अंततः अलग तर्कों के आधार पर अंतिम निष्कर्ष से सहमति जताई।
फैसला
हाईकोर्ट ने कहा कि एकल न्यायाधीश का आदेश किसी स्पष्ट गैरकानूनीता से ग्रस्त नहीं था और इसमें हस्तक्षेप का कोई कारण नहीं है। कोर्ट ने कहा, “यह कोर्ट संतुष्ट है कि एकल न्यायाधीश द्वारा रिकॉर्ड किए गए कारण किसी स्पष्ट गैरकानूनीता से ग्रस्त नहीं हैं, जिससे यह कोर्ट कोई भिन्न दृष्टिकोण अपनाए।”
दोनों विशेष अपीलें खारिज कर दी गईं।