छावनी संपत्ति का रक्षा एनओसी के बिना पंजीकरण नहीं, बिक्री का समझौता भी शामिल: इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में, रक्षा अधिकारियों से ‘अनापत्ति प्रमाण पत्र’ (NOC) के बिना छावनी क्षेत्र में स्थित एक संपत्ति के बिक्री के समझौते (agreement to sell) को पंजीकृत करने से इनकार करने के सब-रजिस्ट्रार के फैसले को सही ठहराया है। जस्टिस शेखर बी. सराफ और जस्टिस प्रवीण कुमार गिरी की खंडपीठ ने अहमद अली खान द्वारा दायर एक रिट याचिका को खारिज कर दिया। कोर्ट ने माना कि बिना पूर्व अनुमति के बिक्री के समझौते के माध्यम से ऐसी संपत्ति को हस्तांतरित करने का प्रयास, कानून द्वारा सीधे तौर पर प्रतिबंधित कार्य को “छद्म” तरीके से करने जैसा है। कोर्ट ने पुष्टि की कि एनओसी को अनिवार्य करने वाले उसके पिछले आदेश और सरकारी परिपत्र, हस्तांतरण को प्रभावित करने वाले सभी दस्तावेजों पर लागू होते हैं, जिसमें बिक्री का समझौता भी शामिल है।

मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता अहमद अली खान ने सब-रजिस्ट्रार-चतुर्थ, सदर, मेरठ द्वारा 26 अक्टूबर 2012 को उठाई गई आपत्ति को चुनौती दी थी। सब-रजिस्ट्रार ने बंगला नंबर 132, सर्वे नंबर 56, ब्रिटिश कैवेलरी (बी.सी.) लाइन्स, बंगला एरिया, मेरठ कैंट के बिक्री के समझौते को पंजीकृत करने से इनकार कर दिया था।

यह इनकार इलाहाबाद हाईकोर्ट के दो पिछले आदेशों—कैंटोनमेंट बोर्ड, वाराणसी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य (2010) और वीरेंद्र कुमार व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य (2010)—और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 21 फरवरी 2011 को जारी एक परिपत्र पर आधारित था। इन निर्देशों में रक्षा संपदा अधिकारी (Defence Estate Officer) से एनओसी के बिना छावनी क्षेत्र के भीतर किसी भी संपत्ति के हस्तांतरण के विलेख को पंजीकृत करने पर रोक लगाई गई थी।

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याचिकाकर्ता ने उक्त बंगले के सुपरस्ट्रक्चर के ‘ओल्ड ग्रांट राइट्स’ को श्री अजय गुप्ता और श्रीमती पारुल गुप्ता को 45 लाख रुपये में बेचने का समझौता किया था, जिसके लिए उन्हें 25 लाख रुपये अग्रिम भुगतान के रूप में प्राप्त हुए थे।

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याचिकाकर्ता की दलीलें

याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील श्री विनायक मिथर ने तर्क दिया कि सब-रजिस्ट्रार की कार्रवाई अवैध थी और पंजीकरण अधिनियम, 1908 के दायरे से बाहर थी। उनकी प्रमुख दलीलें थीं:

  • बिक्री का समझौता केवल बंगले के सुपरस्ट्रक्चर (ऊपरी ढांचे) से संबंधित था, न कि जमीन से, जिसे समझौते में स्पष्ट रूप से भारत सरकार की संपत्ति के रूप में स्वीकार किया गया था।
  • हाईकोर्ट के जिन आदेशों और सरकारी परिपत्र पर भरोसा किया गया, वे भूमि से संबंधित विलेखों के निष्पादन को प्रतिबंधित करते थे, न कि सुपरस्ट्रक्चर को।
  • संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 54 के तहत ‘बिक्री का समझौता’ संपत्ति का ‘हस्तांतरण’ नहीं है, इसलिए बिना एनओसी के हस्तांतरण पर रोक लागू नहीं होती।
  • यह दस्तावेज़ पंजीकरण अधिनियम की धारा 17(1A) के तहत अनिवार्य रूप से पंजीकरण योग्य था।

प्रतिवादियों के तर्क

उत्तरदाताओं की ओर से पेश हुए अतिरिक्त मुख्य स्थायी वकील श्री अरिमर्दन सिंह राजपूत और अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल श्री शशि प्रकाश सिंह, जिनकी सहायता श्री चंद्र प्रकाश यादव ने की, ने याचिका का पुरजोर विरोध करते हुए तर्क दिया:

  • छावनी भूमि प्रशासन नियम, 1937 के नियम 15 के तहत, छावनी में कोई भी संपत्ति केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति के बिना हस्तांतरित नहीं की जा सकती।
  • यह संपत्ति ‘ओल्ड ग्रांट’ शर्तों के तहत है, जो 12 सितंबर 1836 के गवर्नर जनरल इन काउंसिल के आदेश संख्या 179 (GGO-179) द्वारा शासित है, जिसमें किसी भी बिक्री के लिए पूर्व मंजूरी की आवश्यकता होती है।
  • याचिकाकर्ता के पास वैध स्वामित्व का अभाव था, क्योंकि संपत्ति अभी भी मूल धारकों के नाम पर दर्ज थी और याचिकाकर्ता का अपना नामांतरण आवेदन लंबित था।
  • कैंटोनमेंट बोर्ड, वाराणसी मामले में हाईकोर्ट का आदेश “किसी भी दस्तावेज़ को पंजीकृत न करने” का था, जो इतना व्यापक है कि इसमें बिक्री का समझौता भी शामिल है।
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न्यायालय का विश्लेषण और निर्णय

हाईकोर्ट ने मामले के तथ्यों और दोनों पक्षों की दलीलों पर विचार करने के बाद रिट याचिका खारिज कर दी। जस्टिस प्रवीण कुमार गिरी द्वारा लिखे गए फैसले में, पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि सब-रजिस्ट्रार पिछले हाईकोर्ट के आदेशों और उसके परिणामस्वरूप जारी सरकारी परिपत्र से बंधा हुआ था।

कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता का सुपरस्ट्रक्चर और भूमि के बीच अंतर करने का तर्क टिकने योग्य नहीं है। कोर्ट ने टिप्पणी की, “विचाराधीन सुपरस्ट्रक्चर रक्षा भूमि पर है और इसे एक अलग इकाई के रूप में नहीं माना जा सकता है।”

‘quando aliquid prohibetur ex directo, prohibetur et per obliquum’ (जो सीधे नहीं किया जा सकता, उसे परोक्ष रूप से भी नहीं किया जा सकता) के कानूनी सिद्धांत को लागू करते हुए, कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता कानून को दरकिनार करने की कोशिश कर रहा था। कोर्ट ने कहा, “वर्तमान मामले में, याचिकाकर्ता ने अप्रत्यक्ष रूप से वह करने का प्रयास किया है जो वह सीधे तौर पर एक छद्म तरीके से नहीं कर सकता था।”

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पीठ ने तर्क दिया कि बिक्री का समझौता, बिक्री का एक अग्रदूत है और यह संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 53A के तहत विशिष्ट प्रदर्शन के लिए कानूनी कार्यवाही के माध्यम से संपत्ति के हस्तांतरण का कारण बन सकता है।

अदालत ने यह भी बताया कि याचिकाकर्ता ने सरकारी परिपत्र या पिछले न्यायिक आदेशों की वैधता को चुनौती नहीं दी थी। साथ ही, उसके पास सब-रजिस्ट्रार के इनकार के खिलाफ पंजीकरण अधिनियम की धारा 72 के तहत रजिस्ट्रार के समक्ष अपील करने का एक वैकल्पिक वैधानिक उपाय भी था।

फैसले का समापन करते हुए, कोर्ट ने टिप्पणी की कि सरकार का यह प्रतिबंध “राष्ट्रीय हित और सेना की संपत्ति और छावनी क्षेत्र में रहने वाले सैन्य कर्मियों के लिए सुरक्षा खतरे को ध्यान में रखते हुए” पारित किया गया था। इन निष्कर्षों के प्रकाश में, रिट याचिका को सुनवाई योग्य न मानते हुए खारिज कर दिया गया।

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