एक महत्वपूर्ण फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस विनोद दिवाकर ने अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (एसीजेएम), जौनपुर को दीपक कुमार बनाम यूपी राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों की अपनी व्याख्या पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि अगर एसीजेएम को अभी भी कानूनी ढांचे को समझने में दिक्कत आ रही है, तो उन्हें साक्ष्य प्रबंधन और संपत्ति डी-सीलिंग पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को बेहतर ढंग से समझने के लिए रिफ्रेशर कोर्स करने पर विचार करना चाहिए।
केस बैकग्राउंड
यह मामला बिजेंद्र और अन्य के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 419, 420 और 471 और भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम की धारा 15 के तहत दर्ज एफआईआर से उपजा है। आरोपों में आवेदक दीपक कुमार के स्वामित्व वाले परिसर से बिना आवश्यक सरकारी मंजूरी के अनधिकृत क्लिनिक चलाने का आरोप शामिल है। क्लिनिक सरकारी डॉक्टर डॉ. राम प्रकाश सिंह की देखरेख में चलाया जा रहा था, जिन्होंने कथित तौर पर इस उद्देश्य के लिए कुमार से घर किराए पर लिया था।
एफआईआर के जवाब में जांच अधिकारी ने कुमार के घर को सील कर दिया, क्योंकि उसे उक्त गैरकानूनी गतिविधियों में शामिल माना गया। इसके बाद दीपक कुमार ने ट्रायल कोर्ट में एक आवेदन दायर कर अपनी संपत्ति को डी-सील करने का अनुरोध किया। हालांकि, एसीजेएम, जौनपुर ने 3 जून, 2024 को इस याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि घर और उसकी सामग्री को मुक्त करने से इसमें शामिल साक्ष्य की प्रकृति बदल सकती है।
महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दे
मुख्य कानूनी मुद्दा दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 451 की व्याख्या और आवेदन तथा सुंदरभाई अंबालाल देसाई बनाम गुजरात राज्य (2002) में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के इर्द-गिर्द घूमता है। सर्वोच्च न्यायालय ने जांच के दौरान जब्त की गई संपत्ति को मुक्त करने के संबंध में स्पष्ट दिशा-निर्देश निर्धारित किए थे, जिसमें कहा गया था कि ऐसी संपत्ति को अनावश्यक रूप से पुलिस हिरासत में नहीं रखा जाना चाहिए, यदि इसे उचित सुरक्षा उपायों के साथ किसी जिम्मेदार पक्ष को मुक्त किया जा सकता है।
हाईकोर्ट ने पाया कि एसीजेएम इन सिद्धांतों को सही ढंग से लागू करने में विफल रहे, जिसके कारण कुमार की संपत्ति को डी-सील करने से अनुचित इनकार किया गया। न्यायमूर्ति दिवाकर ने कहा कि सामान की उचित सूची बनाने और उसके बाद जमानती बांड के तहत आवेदक को सौंपने से साक्ष्य की प्रकृति में कोई बदलाव नहीं होता।
न्यायालय की टिप्पणियां
निचली अदालत के फैसले की तीखी आलोचना करते हुए न्यायमूर्ति दिवाकर ने कहा, “यह परेशान करने वाली बात है कि निचली अदालत यह समझने में विफल रही है कि अगर घर में पड़े सामान की उचित सूची बनाने के बाद घर को सीलबंद करके जांच अधिकारी को सौंप दिया जाता है तो साक्ष्य की प्रकृति कैसे बदल सकती है।” उन्होंने आगे जोर दिया कि अगर एसीजेएम को इन कानूनी सिद्धांतों को समझने में संघर्ष करना जारी रहता है, तो उन्हें रिफ्रेशर कोर्स में भाग लेने पर विचार करना चाहिए।
न्यायालय दिवाकर ने सुझाव दिया, “अगर विद्वान एसीजेएम को सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों की समझ की कमी के कारण स्पष्टीकरण की आवश्यकता है, तो विद्वान जिला न्यायाधीश, जौनपुर के माध्यम से इस न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल से अनुरोध किया जा सकता है, ताकि उनके रिफ्रेशर कोर्स के लिए न्यायिक प्रशिक्षण और अनुसंधान संस्थान को उचित निर्देश जारी किए जा सकें।” यह अवलोकन उल्लेखनीय है क्योंकि यह न्यायपालिका की इस प्रतिबद्धता को उजागर करता है कि न्यायिक अधिकारी कानूनी सिद्धांतों से अच्छी तरह वाकिफ हों, खासकर तब जब उनकी गलतफहमी न्याय की विफलता का कारण बन सकती है।
हाईकोर्ट ने अंततः आवेदन का निपटारा करते हुए एसीजेएम को निर्देश दिया कि वे सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों और स्वयं हाईकोर्ट द्वारा की गई टिप्पणियों के आलोक में मामले का पुनर्मूल्यांकन करें। न्यायमूर्ति दिवाकर ने निर्देश दिया कि आवेदन पर हाईकोर्ट के आदेश की तिथि से एक सप्ताह के भीतर निर्णय लिया जाए।
मामले का विवरण
– मामले का शीर्षक: दीपक कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य
– मामला संख्या: आवेदन धारा 482 संख्या 23191/2024
– पीठ: न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर